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अथ द्वाविंशः सर्गः
वीरस्तु धर्ममिति यं परितोऽनपायं विज्ञानतस्तुलितमाह
जगद्धिताय। तस्यानुयायिधृतविस्मरणादिदोषा
द्याऽभूद्दसा क्रमगतोच्यत इत्यहो सा ॥१॥
वीर भगवान् ने सर्व प्रकार से निर्दोष और विज्ञान-सन्तुलित जिस धर्म का उपदेश जगत् भर के प्राणियों के हित के लिए दिया था, उस धर्म की जो दशा भगवान् महावीर के ही अनुयायियों द्वारा विस्मरण आदि दोष से हुई, वह क्रम से यहां पर कही जाती है ॥१॥
भो भो प्रपश्यत पुनीतपुराणपन्था विश्वस्य शैत्यपरिहारकृदेककन्था । आभद्रबाहु किल वीरमतानुगाना मेका स्थितिः पुनरभूदसकौ द्विदाना ॥२॥
हे पाठको देखो- वह पवित्र, पुरातन (सनातन) धर्म-पन्थ (मार्ग) विश्व की शीतता (जड़ता) को परिहार करने के लिए अद्वितीय कन्था (रिजाई) के समान था । उस धर्म के अनुयायियों की स्थिति भद्रबाहु श्रुतकेवली तक तो एक रूप रही,पुनः वह दो धाराओं में परिणत हो गई ॥२॥
कर्णाटकं स्थलमगात् स तु भद्रबाहु र्यं वीरवाचि कुशलं मनुयः समाहुः । स्थौल्येन भद्र इति कोऽपि तदर्थवेत्ता ।
वीरस्य वाचमनुसन्घृतवान् सचेताः ॥३॥ ___जिन भद्रबाहु को मुनिजन वीर-वचन कुशल (श्रुत केवली) कहते थे, वे भद्रबाहु तो उत्तर-प्रान्त में दुर्भिक्ष के प्रकोप से दक्षिण प्रान्त के कर्णाटक देश को चले गये । इधर उत्तर प्रान्त में रह गये स्थूलभद्र मुनि ने - जो कि अपने को वीर-वाणी के अर्थ-वेत्ता और सुचेत्ता मानते थे-उन्होंने महावीर के प्रवचनों का संग्रह किया ॥३॥ स्पष्ट शासनविदः
भद्रबाहो स्तरस्य कर्म सतुषं गदितं तदाहो ।
खलु
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