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19नाररररररररररर बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष से बीज उत्पन्न होता है । यह परम्परा अनादिकाल से बराबर सन्तान रूप चली आ रही है । इसी प्रकार पश, मनुष्य आदिक सभी पदार्थ अपने-अपने कारणों से उत्पन्न होते हुए अनादि से चले आ रहे हैं । इन पदार्थों का कोई अधिकारी या नियन्ता ईश्वर आदि नहीं है, जिसने कि जगत् के पदार्थों को बनाया हो । सभी चेतन या अचेतन पदार्थ अनादिकाल से स्वयं सिद्ध हैं ॥४१॥
चेत्कोऽपि कर्तेति पुनर्यवार्थ यवस्य भूयाद्वपनं व्यपार्थम् । प्रभावकोऽन्यस्य भवन् प्रभाव्यस्तेनार्थ इत्येवमतोऽस्तु भाव्यः ॥४२॥
यदि जगत् के पदार्थों का कोई ईश्वरादि कर्ता-धर्ता होता, तो फिर जौ के लिए जौ का बोना व्यर्थ हो जाता । क्योंकि वही ईश्वर बिना ही बीज के जिस किसी भी प्रकार से जौ को उत्पन्न कर देता । फिर विवक्षित कार्य को उत्पन्न करने के लिए उसके कारण-कलापों के अन्वेषण की क्या आवश्यकता रहती ? अतएव यही मानना युक्ति संगत है कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं प्रभावक भी है और स्वयं प्रभाव्य भी है, अर्थात् अपने ही कारण कलापों से उत्पन्न होता है और अपने कार्य-विशेष को उत्पन्न करने में कारण भी बन जाता है । जैसे बीज के लिए वृक्ष कारण है और बीज कार्य है । किन्तु वृक्ष के लिए वही कार्य रूप बीज कारण बन जाता है और वृक्ष उसका कार्य बन जाता है । यही नियम विश्व के समस्त पदार्थों के लिए जानना चाहिए ॥४२॥ सूर्यस्य घर्मत इहोत्थितमस्ति
पश्य वाष्पीभवद्यदपि वारि जलाशयस्य तस्यैव चोपरि पतेदिति कारणं
किं विश्वप्रबन्धक निबन्धविधाभृदङ्किन्
॥४३॥ देखो-जलाशय (सरोवरादि) का जल सूर्य के घाम से भाप बन कर उठता है और आकाश में जाकर बादल बन कर उसी के ऊपर बरसता है और जहां आवश्यकता होती है, वहां नहीं बरसता है, इसका क्या कारण है ? यदि कोई ईश्वरादिक विश्व का प्रबन्धक या नियामक होता, तो फिर यह गड़बड़ी क्यों होती । इसी प्रकार ईश्वर को नही मानने वाला सुखी जीवन व्यतीत करता है और दूसरा रात-दिन ईश्वर का भजन करते हुए भी दुखी रहता है, सो इसका क्या कारण माना जाय? अतएव यही मानना चाहिए कि प्रत्येक जीव अपने ही कारण-कलापों से सुखी या दुखी होता है, कोई दूसरा सुख या दुःख को नहीं देता ॥४३॥
यदभावे यन्न भवितुमेति तत्कारणकं तत्सुकथेति । कुम्भकृदादिविनेव घटादि किमितरकल्पनयाऽस्त्वभिवादिन् ॥४४॥
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