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जीव और पुद्गल द्रव्यों को गमन करने में जो निमित्त कारण है, उसे धर्म द्रव्य कहते हैं । इससे विपरीत कार्य करने वाले द्रव्य को, अर्थात् जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहायक निमित्त कारण को अधर्म द्रव्य कहते हैं । ये दोनों ही द्रव्य सर्व जगत् में व्याप्त हैं, ऐसा विश्व-ज्ञायक अर्हदेव ने कहा है ॥३७॥
नभोऽवकाशाय किलाखिलेभ्यः कालः परावर्तनकृत्तकेभ्यः । एवं तु षड् द्रव्यमयीयमिष्टिर्यतः समुत्था स्वयमेव सृष्टिः ॥३८॥
जो समस्त द्रव्यों को अपने भीतर अवकाश देता है उसे आकाश द्रव्य कहते हैं । और जो सर्व द्रव्यों के परिवर्तन कराने में निमित्त कारण होता है, उसे काल द्रव्य कहते हैं । इस प्रकार यह समस्त जगत् षट द्रव्यमय जानना चाहिए । इसी से यह सब सृष्टि स्वतः सिद्ध उत्पन्न हुई जानना चाहिए ॥३८॥
भावार्थ - इस षट् द्रव्यमयी लोक को किसी ने बनाया नहीं है । यह स्वतः सिद्ध अनादि-निधन है । इसमें जो भी रचना दृष्टिगोचर होती है, वह भी स्वतः उत्पन्न हुई जानना चाहिए ।
न सर्वथा नूनमुदेति जातु यदस्ति नश्यत्तदथो न भातु । निमित्त-नैमित्तिक भावतस्तु रूपान्तरं सन्दधदस्ति वस्तु ॥३९॥
कोई भी वस्तु सर्वथा नवीन उत्पन्न नहीं होती । इसी प्रकार जो वस्तु विद्यमान है, वह भी कभी नष्ट नहीं होती है । किन्तु निमित्त नैमित्तिक भाव से प्रत्येक वस्तु नित्य नवीन रूप. को धारण करती हुई परिवर्तित होती रहतीहै, यही वस्तु का वस्तुत्व धर्म है ॥३९॥
भावार्थ - यद्यपि वस्तु के परिणमन में उसका उपादान कारण ही प्रधान होता है, तथापि निमित्त कारण के बिना उसका परिणमन नहीं होता है, अतएव निमित्त-नैमित्तिक भाव से वस्तु का परिणमन कहा जाता है ।
समस्ति वस्तुत्वमकाट चमेतन्नोचेत्कि माश्वासनमेतु चेतः । यदग्नितः पाचनमे तिकर्तुं जलेन तृष्णामथवाऽपहर्तुम् ॥४०॥
प्रत्येक वस्तु का वस्तुत्व धर्म अकाट्य है, वह सर्वदा उसके साथ रहता है । यदि ऐसा न माना जाय, तो मनुष्य का चित्त कैसे किसी वस्तु का विश्वास करे ? देखो-किसी वस्तु के पकाने का कार्य अग्नि से ही होता है और प्यास दूर करने के लिए जल से ही प्रयोजन होता है । अग्नि का कार्य जल नहीं कर सकता और जल के कार्य को अग्नि नहीं कर सकती । वस्तु की वस्तुता यही है कि जिसका जो कार्य है, उसे वही सम्पन्न करे ॥४०॥
बीजादगोऽगादुत बीज एवमनादिसन्तानतया मुदे वः । सर्वे पदार्थाः पशवो मनुष्या न कोऽप्यमीषामधिकार्यनु स्यात् ॥४१॥
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