SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 15वाररररररररररररररर अथ षोडशः सर्गः विश्वस्य रक्षा प्रभवेदितीयद्वीरस्यसच्छासनमद्वितीयम् । समाश्रयन्तीह धरातलेऽसून्न कोऽपि भूयादसुखीति तेषु ॥१॥ भगवान् महावीर के शासन की यही सब से बड़ी अद्वितीय विशेषता थी कि इस धरातल पर कोई प्राणी दुःखी न रहे, सब सुखी हों और सारे संसार की रक्षा हो ॥१॥ आत्मन् वसेस्त्वं वसितुं परेभ्यः देयं स्ववन्नान्यहृदत्र तेभ्यः । भवेः कदाचित्स्वभवे यदि त्वं प्रवाञ्छसि स्वं सुखसम्पदित्वम् ॥ भगवान् ने कहा-हे आत्मन्, यदि तुम यहां सुख से रहना चाहते हो, तो औरों को भी सुख से रहने दो । यदि तुम स्वयं दुखी नहीं होना चाहते हो, तो औरों को भी दुःख मत दो ॥२॥ भावार्थ-तुम स्वयं जैसा बनना चाहते हो, उसी प्रकार का व्यवहार दूसरों के साथ भी करो । आपनमन्यं समुदीक्ष्य मास्थास्तूष्णीं वहेः किन्तु निजामिहास्थाम् । स्वेदे बहत्यन्यजनस्य रक्त-प्रमोक्षणे स्वस्य भवे प्रसक्तः ॥३॥ दूसरे को आपत्ति में पड़ा देखकर तुम चुप मत बैठे रहो, किन्तु उसके संकट को दूर करने का शक्ति-भर प्रयत्न करो । दूसरे का जहां पसीना बह रहा हो, वहां पर तुम अपना खून बहाने को तैयार रहो ॥३॥ वोढार एवं तव थूकमेते स्वयं स्वपाणावपि यायिने ते । छत्रं दधाना शिरसि प्रयासान्नित्यं भवन्तः स्वयमेव दासाः ॥४॥ ___जब तुम दूसरों की भलाई के लिए मरने को तैयार रहोगे, तब दूसरे लोग भी तुम्हारे थूक को भी अपने हाथ पर झेलने को तैयार रहेंगे । वे तुम्हारे चलते समय शिर पर छत्र-धारण करेंगे और सदा तुम्हारी आज्ञा को पालन करने के लिए स्वयं ही दास समान प्रयत्नशील रहेंगे ।।४।। उच्छालितोऽर्काय रजःसम्हः पतेच्छिरस्येव तथाऽयमूहः । कृतं परस्मै फलति स्वयं तन्निजात्मनीत्येव वदन्ति सन्तः ॥५॥ जैसे सूर्य के ऊपर फेंकी गई धूलि फेंकने वाले के सिर पर आकर गिरती है, इसी प्रकार दूसरों के लिए किया गया बुरा कार्य स्वयं अपने लिए ही बुरा फल देता है । इसलिए दूसरों के साथ भला ही व्यवहार करना चाहिए, यही सन्त पुरुषों का कहना है ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy