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________________ सररररररररररररररररररररररररररररर बलः पिताऽम्बाऽस्य च साऽस्तु भद्रा स्थितिः स्वयं राजगृहे किल द्राक्। प्रभासनामा चरणों गणीशः श्रीवीरदेवस्य महान् गुणी सः ॥१२॥ श्री वीर भगवान् के अन्तिम अर्थात् ग्यारहवें गणधर प्रभास नाम के महान् गुणी पुरुष हुए । इनके पिता का नाम बल एवं माता का नाम भद्रा था और ये स्वयं राजगृह के रहने वाले थे ॥१२॥ सर्वेऽप्यमी विप्रकुलप्रजाता आचार्यतां बुद्धिधरेषु याताः । अर्थं कमप्यस्फुटमर्पयन्तः सम्माननीयत्वमिहाश्रयन्तः ॥१३॥ ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए ये सभी गणधर बुद्धिधारियों में सम्माननीयता को प्राप्त कर किसी तत्त्व-विशेष के रहस्य को स्पष्ट रूप से यथार्थ नहीं जानते हुए भी आचार्यपने को प्राप्त हो रहे थे ॥१३॥ अन्तस्तले स्वामनुभावयन्तस्त्रुटिं बहिर्भावुक तां नयन्तः । तस्थु सशल्यांघ्रिदशां वहन्तः हृदार्त्तिमेतामनुचिन्तयन्तः ॥१४।। ये सभी विद्वान् अपने-अपने अन्तस्तल में अपनी-अपनी त्रुटि को अनुभव करते हुए भी, बाहिर भावुकता को प्रकट करते हुए और हृदय में अपनी मानसिक पीड़ा का चिन्तवन करते हुए पैर में कांटा लगे व्यक्ति की दशा को धारण करने वाले पुरुष के समान विचरते थे ॥१४॥ अथाभवद्यज्ञविधानमेते निमन्त्रितास्तत्र मुदस्थले ते । स्वकीयसार्थातिशयप्रभूतिः सर्वेषु मुख्यः स्वयमिन्द्रभूतिः ॥१५॥ उस समय किसी स्थान पर विशेष यज्ञ का विधान हो रहा था, उस यज्ञ-विधान में ये उपर्युक्त सर्व विद्वान् अपनी-अपनी शिष्य मण्डली के साथ आमन्त्रित होकर सम्मिलित हुए । उन सबके प्रमुख स्वयं इन्द्रभूति थे ॥१५॥ समाययुः किन्तु य एव देवा न तस्थुरत्रेति किलामुदे वा । लब्ध्वेन्द्रभूतिर्यजनं स नाम समाप्य तस्मान्ननु निर्जगाम ॥१६॥ यज्ञ होने के समय आकाश से देवगण आते हुए दिखे । (जिन्हें देखकर यज्ञ में उपस्थित सभी लोग अति हर्षित हुए । वे सोच रहे थे कि यज्ञ के प्रभाव से देवगण आ रहे हैं ।) किन्तु जो देव आये थे, उनमें से कोई भी इस यज्ञ स्थल पर नहीं ठहरे और आगे चले गये । तब सब को खेद हुआ । इन्द्रभूति यह देखकर आश्चर्य से चकित हो यज्ञ को समाप्त कर वहां से चल दिये । (यह देखने के लिए कि वे देव कहां जा रहे हैं ।) ॥१६॥ किमेवमाश्चर्यनिमग्नचित्ताः सर्वेऽपि चेलुः समुदायवित्ताः । जयोऽस्तु सर्वज्ञजिनस्य चेति स्म देवतानां वचनं निरेति ॥१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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