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तत्पश्चात् पांच प्रकार के रत्नों से निर्मित होने के कारण चित्रविचित्र वर्ण वाला प्रथम शाल (कोट) था, जो ऐसा प्रतीत होता था, मानों मुक्ति रूप स्त्री का ऊपर से गिरा हुआ पवित्र कङ्कण ही हो । वह शाल अपने रत्नों की किरणों के समूह से आकाश में उदित हुए इन्द्र-धनुष की शोभा को विस्तार
रहा था ॥५॥
नवान्निधीनित्यभिधारयन्तं समुल्लसत्तोरणतो बृहत्त्वात् ।
ततः पुनः प्रावरणं वदामि रथाङ्गिवद्धे नर ! राजतत्त्वात् ॥६॥ हे पाठक गण, तत्पश्चात् नव निधियों को धारण करने वाला, विशाल उल्लासमान तोरण-द्वार से संयुक्त राजतत्त्व वाला (चांदी से निर्मित) रथाङ्गी (चक्री) के समान प्रावरण (कोट) था, ऐसा हम कहते हैं ॥६॥
भावार्थ जैसे चक्रवर्ती नव निधियों को धारण करता है, उसी प्रकार यह कोट भी नव-निधियों से संयुक्त था। चक्रवर्ती तो रण के कौशल से युक्त होता है, यह कोट तोरण द्वार से युक्त था । चक्रवर्ती विशाल राज-तत्त्व से संयुक्त होता है, यह कोट भी राजतत्त्व से युक्त था, अर्थात् चांदी से बना हुआ
था ।
ततो मरालादिदशप्रकार-चिह्न र्युतानां नभसोऽधिकारः । प्रत्येकमभ्राभ्रविधूदितानामष्टाधिकानां परितो ध्वजानाम् ॥७॥
तदनन्तर हंस, चक्रवाक आदि दश प्रकार के चिह्नों से संयुक्त और प्रत्येक एक सौ आठ, एक सौ आठ संख्या वाली ध्वजाओं की पंक्ति थी, जो फहराती हुई आकाश में अपना अधिकार प्रकट कर रही थी ||७||
सर्वैर्मनुष्यैरिह सूषितव्यमितीव वप्रच्छलतोऽथ भव्यः 1 श्रीपुष्करद्वीपगतो ऽद्रिरेवाऽऽगत्य स्थितः स्वीकुरुते स्म सेवाम् ॥८॥
तत्पश्चात् सर्व मनुष्यों को यहां आकर रहना चाहिए मानों ऐसा कहता हुआ ही कोट के बहाने से पुष्कर- द्वीपवर्ती भव्य मानुषोत्तर पर्वत यहां आकर प्रभु की सेवा को स्वीकार करके अवस्थित है, ऐसा प्रतीत होता था ॥ ८ ॥
स मङ्गलद्रव्यगणं दधानः स्वयं चतुर्गोपुर भासमानः । यत्र प्रतीहारतयास्ति वानदेवैः प्रणीतो गुणसम्विधानः ॥ ९ ॥ वह दूसरा कोट अष्ट मंगल द्रव्यों को स्वयं धारण कर रहा था, चार गोपुर द्वारों से प्रकाशमान था, सर्व गुणों से विराजमान था और जिस पर प्रतीहार ( द्वारपाल) रूप से व्यन्तर देव पहरा दे रहे थे ॥९॥
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