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अथ त्रयोदशः सर्गः
वृत्तं तथा योजनमात्रमञ्चं सार्द्धद्वयकोशसमुन्नतं च । ख्यातं च नाम्ना समवेत्य यत्र ययुर्जनाः श्रीशरणं तदत्र ॥१॥ कुबेर ने वीर भगवान् के लिए जो समवशरण नामक सभामण्डप बनाया कवि उसका कुछ दिग्दर्शन कराते हैं
वह सभा-मण्डप गोलाकार था, मध्य में एक योजन विस्तृत और अढ़ाई कोश उन्नत था । उसमें चारों ओर से आकर सभी प्रकार के जीव श्री वीर भगवान् के शरण को प्राप्त होते थे, इसलिए वह 'समवशरण' इस नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ ॥१॥
आदौ समादीयत धूलिशालस्ततश्च यः खातिकया विशालः । स्वरत्नसम्पत्तिधृतोपहारः सेवा प्रभोरब्धिरिवाचचार ॥२॥ उस समवशरण में सब से पहिले धूलिशाल नाम से प्रसिद्ध कोट था, जो कि चारों ओर खाई से घिरा हुआ था। वह ऐसा प्रतीत होता था, मानों अपनी रत्नादिक रूप सर्व सम्पदा को भेंट में लाकर समुद्र ही वीर प्रभु की सेवा कर रहा है ॥२॥
त्रिमेखला-वापिचतुष्कयुक्ताः स्तम्भाः पुनर्मानहरा लसन्ति ।।
रत्नत्रयेणर्षिवरा यथैवमाराधनाधीनह दो भवन्ति ॥३॥
पुनः तीन मेखलाओं (कटनियों) से और चार वापिकाओं से युक्त मान को हरण करने वाले चार मानस्तम्भ चारों दिशाओं में सुशोभित हो रहे थे । वे ऐसे मालूम पड़ते थे मानों जैसे रत्नत्रय से युक्त और चार आराधनाओं को हृदय में धारण करने वाले ऋषिवर ही हैं ॥३॥
स्तम्भा इतः सम्प्रति खातिकायास्ततः पुनः पौष्पचयः शुभायाः । श्रीमालतीमौक्तिक सम्विधानि अनेकरूपाणि तु कौतुकानि ॥४॥
खाई के बाहरी भाग में मानस्तंभ थे और खाई के भीतरी भाग पर पुष्प वाटिका थी जिसमें कि मालती, मोतिया, गुलाब, मोंगरा आदि अनेक प्रकार के पुष्प खिल रहे थे ॥४॥
रत्नांशकैः पञ्चविधैर्विचित्रः मुक्तेश्च्युतः कङ्कणवत्पवित्रः । शालः स आत्मीयरुचां चयेन सर्जस्तदैन्द्रं धनुरुद्गतेन ॥५॥
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