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________________ रररररररररररररररररररररररररeeeeeeee श्रिया सम्वर्धमानन्तमनुक्षणमपि प्रभुम् । श्रीवर्धमाननामाऽयं तस्य चके विशाम्पतिः ॥६॥ सिद्धार्थ राजा ने प्रतिक्षण श्री अर्थात् शारीरिक सौन्दर्य से वृद्धिंगत होते हुए उन प्रभु का 'श्री वर्धमान' यह नाम रखा ॥६॥ इङ्गितेन निजस्याथ वर्धयन्मोदवारिधिम् जगदादको बालचन्द्रमाः समवर्धत ॥७॥ अथानन्तर अपने इंगित से अर्थात् बाल-सुलभ नाना प्रकार की चेष्टा रूप क्रिया-कलाप से जगत् को आह्लादित करने वाले वे बाल चन्द्र-स्वरूप भगवान् संसार में हर्ष रूपी समुद्र को बढ़ाते हुए स्वयं बढ़ने लगे ॥७॥ रराज मातुरुत्सङ्गे महोदारविचेष्टितः । क्षीरसागरवेलाया इवाङ्के कौस्तुभो मणिः ॥८॥ महान् उदार-चेष्टाओं को करने वाले वे भगवान् माता की गोद में बैठकर इस प्रकार से शोभित होते थे, जिस प्रकार से कि क्षीरसागर की वेला के मध्यभाग पर अवस्थित कौस्तुभममि शोभित होता है ॥८॥ अगादपि पितुः पार्वे उदयाद्रेरिवांशुमान् । सर्वस्य भूतलस्यायं चित्ताम्भोजं विकासयन् ॥९॥ __कभी-कभी वे भगवान् समस्त भूतलवासी प्राणियों के चित्त रूप कमलों को विकसित करते हुए उदयाचल पर जाने वाले सूर्य के समान पिता के समीप जाते थे ॥९॥ देवतानां करागे तु गतोऽयं समभावयत् । वल्लीना पल्लवप्रान्ते विकासि कुसुमायितम् ॥१०॥ देवताओं के हस्तों के अग्रभाग पर अवस्थित वे भगवान् इस प्रकार से सुशोभित होते थे, जिस प्रकार से कि, लताओं के पल्लवों के अन्त में विकसित कुसुम शोभा को धारण करता है ॥१०॥ कदाचिच्चेद्भुवो भालमलञ्चके तदा स्मितम् ।। तद घिनखरश्मीनां व्याजेनाप्याततान सा ॥११॥ कदाचित् पृथ्वी पर खेलते हुए भगवान् उसके मस्तक को इस प्रकार से अलंकृत करते थे, मानों उनके चरणों के नखों की किरणों के बहाने से वह पृथ्वी अपनी मुस्कराहट को ही चारों ओर फैला रही है ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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