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________________ धूल को झोंक रही है और कामदेव रूपी धूर्तराज चोर अवसर देखकर उनके हृदयरूपी धन को चुरा रहा है ॥३४॥ अभिसरन्ति तरां कुसुमक्षणे समुचिताः सहकारगणाश्च वै । रुचिरतामिति कोकिलपित्सतां सरसभावभृतां मधुरारवैः ॥३५॥ इस वसन्त समय में आम्र वृक्ष अपने ऊपर आकर बैठे हुए और सरस भाव को धारण करने वाले कोयल पक्षियों के मधुर शब्दों के द्वारा मानों रुचिरता (रमणीयता) का ही अभिसरण कर रहे हैं ॥३५॥ विरहिणी-परितापकरोऽकरोद्यदपि पापमिहापरिहारभृत् । तदघमद्य विपद्यत एषको लगदलिव्यपदेशतया दधत् ॥३६॥ विरहिणी स्त्रियों को सन्ताप पहुँचा कर इस वसन्त काल ने जो अपरिहरणीय ऐसा निकाचित पाप उपार्जन किया है, वह उदय में आकर आज संलग्न इन भौरों के बहाने मानों इस वसन्त को दुखी कर रहा है ॥३६॥ ऋद्धिं वारजनीव गच्छति वनी सैषान्वहं श्रीभुवं, तुल्यः स्ते नकृता प्रतर्जति खरैः पान्थान् शरैः रागदः । संसारे रसराज एत्यतिथिसान्नित्यं प्रतिष्ठापनं, नर्मश्रीऋतु कौतुकीव सकलो बन्धुर्मुदं याति नः ॥३७॥ इस समय यह वनस्थली वेश्या के समान प्रतिदिन लक्ष्मी से सम्पन्न समृद्धि को प्राप्त हो रही है, राग को उत्पन्न करने वाला यह कामदेव इस समय चोर के समान आचरण करता हुआ पथिकजनों को अपने तीक्ष्ण वाणों से बिद्ध कर रहा है, रसों का राजा जो शृङ्गार रस है, वह इस समय संसार में सर्वत्र अतिथि रूप से प्रतिष्ठा को पा रहा है, और हमारा यह समस्त बन्धु-जन-समूह विनोद करने वाले वसन्त श्री के कौतुक करने वाले विदूषक के समान हर्ष को प्राप्त हो रहा है ॥३७॥ चैत्रशुक्लपक्षत्रिजयायां सुतमसूत सा भूपतिजाया । उत्तमोच्चासक लग्रह निष्ठे समये मौहू र्तिकोपदिष्टे ॥३८॥ चैत्र शुल्का तीसरी जया तिथि अर्थात् त्रयोदशी के दिन, जब कि सभी उत्तम ग्रह उच्च स्थान पर अवस्थित थे और जिस समय को ज्योतिषीगण सर्वोत्तम बतला रहे थे-ऐसे उत्तम समय में सिद्धार्थ राजा की रानी इस प्रियकारिणी देवी ने पुत्र को जना ॥३८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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