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अथाभवद् व्योम्नि महाप्रकाशः सूर्यातिशायी सहसा तदा सः । किमेतदित्थं हृदि काकुभावः कुर्वन् जनानां प्रचलत्प्रभावः ॥१॥
भगवान महावीर के गर्भ में आने के पश्चात् आकाश में सूर्य के प्रकाश को भी उल्लंघन करने वाला और उत्तरोतर वृद्धि को प्राप्त होने वाला महान्-प्रकाश सहसा दिखाई दिया, जिसे देखकर यह क्या है' इस प्रकार का तर्क-वितर्क लोगों के हृदय में उत्पन्न हुआ । सभी लोग उस प्रकाश-पुञ्ज से प्रभावित हुए ॥१॥
क्षणोत्तरं सन्निधिमाजगाम श्रीदेवतानां निवहः स नाम । तासां किलाऽऽतिथ्यविधौ नरेश उद्भीबभूवोद्यत आदरे सः ॥२॥
इसके एक क्षण बाद ही श्री, ह्री आदि देवताओं का वह प्रकाशमयी समूह लोगों के समीप आया। उसे आता हुआ देखकर वह सिद्धार्थ राजा खड़े होकर उन देवियों के आतिथ्य-सत्कार की विधि में उद्यत हुआ ॥२॥
हेतुर्नरद्वारि समागमाय सुरश्रियः कोऽस्ति किलेतिकायः । दुनोति चित्तं मम तर्क एष प्रयुक्तवान् वाक्यमिदं नरेशः ॥३॥
आप देव-लक्ष्मियों का मनुष्य के द्वार पर आगमन का क्या कौनसा कारण है, यह वितर्क मेरे चित्त में उथल-पुथल कर रहा है । ऐसा वाक्य उस सिद्धार्थ नरेश ने कहा ॥३॥
विशेष- श्लोक-पठित 'नर-द्वारि' और सुरश्रियः ये दोनों पद द्वयर्थक हैं । तदनुसार दूसरा अर्थ यह है कि आप समृद्धिशालियों का मुझ दीन (गरीब) के द्वार पर आने का क्या कारण है, ऐसा राजा ने कहा ।
गुरोर्गुरुणां भवतो निरीक्षाऽस्माकं विभो ! भाग्यविधेः परीक्षा । तदर्थमेवेयमिहास्ति दीक्षा न काचिदन्या प्रतिभाति भिक्षा ॥४॥
देवियों ने उत्तर में कहा-हे विभो (स्वामिन्) जगद्-गुरु जिनेन्द्र के गुरु (पिता) ऐसे आपके दर्शनार्थ हम लोगों का आगमन हुआ है । यह हमारे भाग्य का परीक्षा-काल है- पुण्य अवसर है । उसी के लिए हम लोग यहां आईं हैं, और कोई कारण हमारे आने का नहीं है ॥४॥
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