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कण्टकितनुर्हर्षा भुसम्वाहिनी, सुखदस्तीर्थेश्वरे किम्पुनः ॥६२॥
एव
मुख
वह वामोरु (सुन्दर जंघाओं वाली) प्रियकारिणी रानी अपने मतिमान्, महीपति प्राणनाथ के श्री से इस प्रकार की कभी व्यर्थ नहीं जानेवाली मङ्गलमयी मधुर वाणी को सुनकर हर्षाश्रुओं को बहाती हुई गोद में प्राप्त हुए पुत्र के समान आनन्द से रोमाञ्चित हो गई । पुत्र मात्र की प्राप्ति ही सुखद होती है, फिर तीर्थेश्वर जैसे पुत्र के प्राप्त होने पर तो सुख का ठिकाना ही क्या है ॥६२॥
अङ्क प्राप्तसुतेव
जाता यत्सुतमात्र
तदिह सुर - सुरेशाः प्राप्य सद्धर्मलेशा, वरपटह - रणाद्यैः किञ्चन श्रेष्ठपाद्यः । नव-नवमपि कृत्वा ते मुहुस्तां च नुत्वा, सदुदयकलिताङ्गीं जग्मुरिष्टं वराङ्गीम् ॥६३॥
इसी समय भगवान् के गर्भावतरण को जान करके सद्धर्म के धारक देव और देवेन्द्र गण यहां आये और उत्तम भेरी, रण- तूल आदि वाद्यों से तथा पुष्पादि श्रेष्ठ पूजन सामग्री से अभिनव अर्चन पूजन करके और उस सद्भाग्योदय से युक्त देह की धारण करने वाली सुन्दरी रानी को बारंवार नमस्कार करके अपने-अपने इष्ट स्थान को चले गये ॥६३॥
श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे वाणीभूषण-वर्णिनं घृतवरी देवी च वर्षर्तोर्जिनमातुरात्तशयनानन्दस्य
भूरामले त्याह्व यं यं धीचयम् । संख्यापन सन्मनः 11811
सर्गस्तुर्य
इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए वाणीभूषण, बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञान सागर द्वारा विरचित इस वीरोदय काव्य में भगवान् की माता के स्वप्न-दर्शन का वर्णन करनेवाला और देवागमन से मन को सन्तुष्ट करने वाला यह चौथा सर्ग समाप्त हुआ ॥४॥
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इहै तदुक्त उचितः सन्तोषयन्
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