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अपने-अपने महलों के शिखर के अग्र भाग पर बैठी हुई वहां की स्त्रियों के मुख-चन्द्र को देखकर कलङ्क को प्राप्त हुआ यह चन्द्रमा मानों लज्जा से नम्र होता हुआ अर्थात् अपना सा मुंह लेकर वहां से जाता है ॥४३॥
परार्थनिष्ठामपि भावयन्ती रसस्थितिं कामपि नाटयन्ती । कोषैकवाञ्छामनुसन्दधाना वेश्यापि भाषेव कवीश्वराणाम् ॥४४॥
वहां की वेश्या भी कवीश्वरों की वाणी के समान मालूम पड़ती है । जैसे कवियों की वाणी परार्थ (परोपकार) करने में निष्ठ होती है । उसी प्रकार वेश्या भी पराये धन के अपहरण में निपुण होती है । जैसे कवि की वाणी शृङ्गार हास्य आदि रसों की वर्णन करने वाली होती है, उसी प्रकार वहां की वेश्या भी काम-रस का अभिनय करने वाली है । जैसे कवियों की वाणी कोष (शब्द-शास्त्र) की एक मात्र वांछा रखती है । उसी प्रकार वेश्या भी धन-संग्रह रूप खजाने की वांछा रखती है । ४४॥
सौधाग्रलग्नबहुनीलमणिप्रभाभिर्दोषायितत्वमिह सन्ततमेव ताभिः । कान्तप्रसङ्गरहिता खलु चक्रवाकी वापीतटेऽप्यहनि ताम्यति सा वराकी ॥४५॥
वहां के भवनों में लगे हुए अनेक नीलमणियों की प्रभा-समूह से निरन्तर ही यहां पर रात्रि है, इस कल्पना से वापिका के तट पर बैठी हुई वह दीन चकवी दिन में भी पति के संयोग से रहित होकर सन्ताप को प्राप्त होती है ||४५।।
भावार्थ - चकवा-चकवी रात्रि को बिछुड़ जाते हैं, ऐसी प्रसिद्धि है । सो कुण्डनपुर के भवनों में जो असंख्य नीलमणि लगे हुए हैं उनकी नीली प्रभा के कारण बेचारी चकवी को दिन में भी रात्रि का भ्रम हो जाता है और इसलिए वह अपने चकवे से बिछुड़ कर दुखी हो जाती है ।
उत्फुल्लोत्पलचक्षुषां मुहुरथाकृष्टाऽऽननश्रीर्बलात्काराबद्ध तनुस्ततोऽयमिह यद्विम्बावतार च्छ लात् । नानानिर्मलरत्नराजिजटिलप्रासादभित्ताविति तच्चान्द्राश्मपतत्पयोभरमिषाच्चन्द्र ग्रहो रोदिति ॥४६॥
विकसित नील कमल के समान है नयन जिनके ऐसी वहां की स्त्रियों के मुख की शोभा को बार-बार चुराने वाला ऐसा यह चन्द्र ग्रह वहां के अनेक निर्मल रत्नों की पंक्ति से जड़े हुए प्रासादों की भित्ति में अपने प्रतिबिम्ब के पड़ने के बहाने से ही मानों कारागार (जेलखाना) में बद्ध हुआ और उन भवनों में लगे हुए चन्द्रकांत मणियों से गिरते हुए जल पूरके मिष से रोता रहता है ॥४६॥
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