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________________ Re 14 तस्मिन् वपुष्येव शिरः समानः विदेहदेशेत्युचिताभिधानः । स्वमुत्तमत्वं विषयो दधानः स चाधुना सत्क्रियते गिरा नः ॥९॥ जैसे शरीर में शिर सर्वोपरि, अवस्थित है उसी प्रकार इस भारतवर्ष के आर्य खण्ड में 'विदेह' इस समुचित नाम वाला और उत्तमता को धारण करने वाला देश है । अब हम अपनी वाणी से उसकी सुन्दरता का वर्णन करते हैं ॥९॥ अनल्पपीताम्बर धामरम्याः पवित्रपद्माप्सरसोऽप्यदम्याः 1 अनेक कल्पद्रुमसम्विधाना ग्रामा लसन्ति त्रिदिवोपमानाः ॥ १०॥ उस विदेह देश में विशाल पीताम्बर अर्थात् आकाश को स्पर्श करने वाले प्रासादों से रमणीक, पवित्र कमलों और जलों से भरे हुए सरोवरों से युक्त, अदम्य ( पर - पराभव - रहित ) और अनेक प्रकार वाले कल्पवृक्षों से ( वन-उपवनों से) व्याप्त ऐसे पुर-ग्रामादिक स्वर्गलोक के समान शोभित हैं ||१०| भावार्थ उस देश के. नगर-ग्रामादिक स्वर्ग-सद्दश प्रतीत होते हैं, क्योंकि जैसे स्वर्ग में पीतवस्त्र धारी इन्द्र के धाम हैं । उसी प्रकार यहां पर भी अम्बर अर्थात् आकाश को छूने वाले बड़े-बड़े मकान हैं । स्वर्ग में पद्मा (लक्ष्मी) अप्सरा आदि रहती है, यहां पर कमलों से सुशोभित जल-भरे सरोवर हैं । स्वर्ग के भवन किसी से कभी पराभाव को प्राप्त नहीं होते, वैसे ही यहां के प्रासाद भी दूसरों से अदम्य हैं । और जैसे स्वर्ग में अनेक जाति के कल्पवृक्ष होते हैं, उसी प्रकार यहां पर भी लोगों को मनोवांछित फल देने वाले अनेक वृक्षों से युक्त वन-उपवनादिक हैं । इस प्रकार इस भारतवर्ष के ग्रामनगरादिक पूर्ण रूप से स्वर्ग की उपमा को धारण करते हैं । - शिखावलीढाभ्रतयाऽप्यटूटा बहिः स्थिता नूतनधान्यकूटाः । प्राच्याः प्रतीचीं व्रजतोऽब्जपस्य विश्रामशैला इव भान्ति तस्य ॥११॥ उन ग्राम-नगरादिकों के बाहिर अवस्थित, अपनी शिखाओं से व्याप्त किया है आकाश को जिन्होंने ऐसे अटूट (विशाल एवम् विपुल परिमाण वाले) नवीन धान्य के कूट पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा को जाने वाले सूर्य के विश्राम शैल ( क्रीड़ा पर्वत) के समान प्रतिभासित होते हैं ॥११॥ उर्वी प्रफुल्लत्स्थलपद्मनेत्र - प्रान्ते ऽञ्जनौघं दधती सखेऽत्र । निरन्तरात्तालिकुलप्रसक्तिं सौभाग्यमात्मीयमभिव्यनक्ति ॥१२॥ हे सखे, इस विदेह देश में प्रफुल्लित स्थल पद्म (गुलाब के फूल ) रूप नेत्रों के प्रान्त भाग में अञ्जन (काजल) को धारण करने वाली पृथ्वी निरन्तर व्याप्त भ्रमर-समूह की गुञ्जार से मानों अपने सौभाग्य को अभिव्यक्त कर रही है ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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