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________________ 13 भावार्थ यह जम्बूद्वीप गोलाकार है और इसको घेरे हुये लवण समुद्र है । अतः इसे पूर्णमासी के चन्द्रमा की उपमा दी गई है । तत्त्वानि जैनाऽऽगमवद्विभर्ति क्षेत्राणि सप्तायमिहाग्रवर्ती । सदक्षिणो जीव इवाऽऽसंहर्षस्तत्राऽसकौ भारतनामवर्ष : ॥५॥ यह जम्बूद्वीप जैन आगम के समान सात तत्त्व रूप सात ही क्षेत्रों को धारण करता है । उन सात तत्त्वों में जैसे सुचतुर और हर्ष को प्राप्त जीव तत्त्व प्रधान है, उसी प्रकार उन सातों क्षेत्रों में दक्षिण दिशा की ओर अति समृद्धि को प्राप्त भारतवर्ष नाम का देश अवस्थित है ॥५॥ श्रीभारतं सम्प्रवदामि शस्त- क्षेत्रं सुदेवागमवारितस्तत् । स्वर्गापवर्गाद्यमिधानशस्यमुत्पादयत्पुण्यविशेषमस्य ॥६॥ मैं श्री भारतवर्ष को प्रशस्त क्षेत्र (खेत) कहता हूँ, क्योंकि जैसे उत्तम क्षेत्र जल वर्षा से सिंचित होकर नाना प्रकार के उत्तम धान्यों को उत्पन्न करता है, उसी प्रकार यह भारतवर्ष भी उत्तम तीर्थङ्कर देवों के आगमन के समय जन्माभिषेक जल से अथवा तीर्थङ्कर देव के आगम ( सदुपदेश ) रूप जल से प्लावित होकर स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) आदि नाम वाले अनेक पुण्य विशेष रूप धान्य को उत्पन्न करता है ॥६॥ हिमालयोल्लासि गुणः स एष द्वीपाधिपस्येव धनुर्विशेषः । वाराशिवंशस्थितिराविभाति भोः पाठका क्षात्रयशो ऽनुपाती ॥७॥ हे पाठकों ! उस द्वीपाधिप अर्थात् सर्व द्वीपों के स्वामी जम्बू द्वीप का यह भारतवर्ष धनुर्विशेष के समान प्रतिभासित होता है । जैसे धनुष में डोरी होती है उसी प्रकार इस भारतवर्ष के उत्तर दिशा में पूर्व से लेकर पश्चिम तक अवस्थित हिमालय नाम का पर्वत ही डोरी है । जैसे धनुष का पृष्ठ भाग बांस का बना होता है, उसी प्रकार इस भारतवर्ष के पृष्ठ भाग में समुद्र रूप बांस की स्थिति है। जिस प्रकार धनुर्धारी मनुष्य क्षात्र यश को प्रकट करता है, उसी प्रकार यह भारतवर्ष भी क्षत्रिय कुलोत्पन्न तीर्थङ्करादि महापुरुषों के महान् यश को प्रकट करता हुआ शोभायमान हो रहा है ॥७॥ श्रीसिन्धु - गङ्गान्तरतः स्थितेन पूर्वापराम्भोनिधिसंहितेन । शैलेन भिन्नेऽत्र किलाऽऽर्यशस्तिः षड्वर्गके स्वोच्च इवायमस्ति ॥८ ॥ पूर्व से लेकर पश्चिम समुद्र तक और श्री गङ्गा, सिन्धु नदियों के अन्तराल से अवस्थित ऐसे विजयार्ध शैल से भिन्न हुआ यह भारतवर्ष षट् खण्ड वाला है । उसमें यह आर्य खण्ड षड् वर्ग में स्वस्थानीय और उच्च ग्रह के समान सर्व श्रेष्ठ है । ( शेष पांच तो म्लेच्छ खण्ड होने से अप्रशस्त हैं) ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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