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________________ 'सरररररररररररररर 10रररररररररररररररररर एकान्त स्वार्थ - परायणता और पाप की प्रवृत्तियाँ ही जोर पकड़ रही थी, तथा उनमें साधुता का लेश भी नहीं रह गया था ॥३४॥ समक्षतो वा जगदम्बिकायास्तत्पुत्रकाणां निगलेऽप्यपायात् । अविभ्यताऽसिस्थितिरङ्किताऽऽसीजनेन चानेन धरा दुराशीः ॥३५॥ उस समय पाप से नहीं डरने वाले लोगों के द्वारा जगदम्बा के समक्ष ही उसके पुत्रों के (अज महिष) के गले पर छुरी चलाई जाती थी, अर्थात् उनकी बलि दी जाती थी (सारी सामाजिक और धार्मिक स्थिति अति भयङ्कर हो रही थी) और उनके इन दुष्कर्मों से यह वसुंधरा दुराशीष दे रही थी अर्थात् त्राहि-त्राहि कर रही थी ॥३५॥ परस्पर द्वेषमयी प्रवृत्तिरेकोऽन्यजीवाय समात्तकृत्तिः । न कोपि यस्याथ न कोऽपि चित्तं शान्तं जनः स्मान्वयतेऽपवित्तम् । उस समय लोगों में परस्पर विद्वेषमयी प्रवृत्ति फैल रही थी और एक जीव दूसरे जीव के मारने के लिए खङ्ग हाथ में लिए हुए था । ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं दिखाई देता था जिसका चित्त क्रोध से भरा हुआ न हो । उस समय लोग शान्त पुरुष को मूर्यों का मुखिया मानने लगे थे ॥३६॥ भूयो भुवो यत्र हृदा विभिन्नं स्वपुत्रकाणां तदुदीक्ष्य चिह्नम् । इवान्धकारानुगता दिशस्ता गन्तुंनभोऽवाञ्छदितोऽप्यधस्तात् ॥३७॥ अपने पुत्रों के ऐसे खोटे चिह्न देखकर पृथिवी माता का हृदय वार-वार विदीर्ण हो जाता था, अर्थात् वार-वार भूकम्प आने से पृथिवी फट जाती थी । सभी दिशाएं अन्धकार से व्याप्त हो रही थीं और लोगों के ऐसे दुष्कृत्य देखकर मानों आकाश नीचे रसातल को जाना चाहता था ॥३७॥ मनोऽहिवद्वक्रि मकल्पहेतुर्वाणी कृपाणीव च मर्म भेत्तुम् । कायोऽप्यकायो जगते जनस्य न कोऽपि कस्यापि बभूव वश्यः ॥३८॥ उस समय के लोगों का मन सर्प के तुल्य कुटिल हो रहा था, उनकी वाणी कृपाणी (छुरी) के समान दूसरों के मर्म को भेदने वाली थी और काय भी पाप का आय (आगम-द्वार) बन रहा था । उस समय कोई भी जन किसी के वश में नहीं था, अर्थात् लोगों के मन-वचन काय की क्रिया अति कुटिल थी और सभी स्वच्छन्द एवं निरङ्कुश हो रहे थे ॥३८॥ इति दुरितान्धकार के समये नक्षत्रौघसङ्क लेऽघमये । अजनि जनाऽऽह्लादनाय तेन वीराह्व यवरसुधास्पदेन ॥३९॥ इस प्रकार पापान्धकार से व्याप्त, दुष्कृत-मय, अक्षत्रिय जनों के समूह से संकुल समय में, अथवा नक्षत्रों के समुदाय से व्याप्त समय में उस वीर नामक महान् चन्द्र ने जनों के कल्याण के लिए जन्म लिया ॥३९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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