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परिच्छेद करने वाला-जानने वाला अर्थात् अतीत-अनागतवर्तमान इन तीनों कालों में निखिलद्रव्य-पर्याय का ग्रहण करने वाला ऐसा जो केवलज्ञान, गुरु आदि के उपदेश के विना जन्म से ही मति-श्रु त-अवधिज्ञानत्रय युक्त होने के कारण सर्वोत्कृष्ट संयम-चारित्र के परिपालन से तप द्वारा ज्ञानावरणीयादि चार घाती कर्मों का सर्वथा घात-विनाश हो जाने से अपने आप प्रगट-उत्पन्न हो गया है; जो अजन्मा है ऐसे स्वयम्भू तथा जिस देव के वीर्य-प्रात्मबल एवं चारित्र क्षायिक होने से अनन्त हैं निर्वाण स्वरूप हैं अर्थात् जिस देव के लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान तथा अनन्तवीर्य एवं अनन्त चारित्र, कर्मों के सर्वथा क्षय हो जाने से अपने आप प्रगट-उत्पन्न हो गये हैं, वह देव ही एकमात्र परमार्थ रूप से स्वयम्भू कहा जाता है । ऐसे स्वयम्भूत-केवलज्ञान, अनन्त वीर्य तथा अनन्त चारित्र वाले वीतराग देव स्वयंभू ही हैं । कभी भी दूसरे नहीं ।। १४ ।।
[१५] अवतरणिका -
ननु यद् भवता शब्दतोऽर्थतश्च इत्युच्यते जिनशासने, स किमभिध इत्यपेक्षायामाह--
श्रीमहादेवस्तोत्रम्-४२
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