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________________ रागद्वषरहित ये भी वीतराग कहे जाते हैं , ऐसे महेश्वर देव को नमन मेरा ही नित्य है ।। २ ॥ शब्दार्थ यः जिसने। महत्त्वात् =महिमासे । च= तथा । ईश्वरत्वात् =ऐश्वर्य (प्रभुता अर्थात् ठकुराई) से । महेश्वरताम् =महेश्वरत्व । गतः =प्राप्त किया है। राग-द्वषविनिमुंक्तम् = राग और द्वेष से रहित । तम् = उस । महेश्वरम् =महेश्वर (महादेव) को। अहम् =मैं । वन्दे = वन्दन (नमन) करता हूँ ।। २ ।। वन्दन श्लोकार्थ जिसने अपनी महिमा से और ऐश्वर्य से महेश्वरत्व प्राप्त किया है, तथा जो राग और द्वेष से रहित है, ऐसे महेश्वरदेव को मैं वन्दन-नमन करता हूँ। (२) भावार्थ - जिस देव ने असाधारण एवं अलौकिक अनंत ज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र आदि अनेक गुणरूपी महिमा से तथा सहज आदि अतिशयरूपी ऐश्वर्य (ठकुराई) से महेश्वरत्व प्राप्त किया है अर्थात् जो महेश्वर याने महादेव कहा गया है। मैं राग और द्वष से रहित वीतराग ऐसे उस श्रीमहादेवस्तोत्रम्-८ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002760
Book TitleMahadev Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSushilmuni
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram Sirohi
Publication Year1985
Total Pages182
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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