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________________ सिद्धपद की भावना हे सिद्ध भगवन्त ! प्राप रूपी हैं । निरंजन निराकार हैं । आपका प्रभाव अचिन्त्य और अलौकिक हैं । आप चौदह राजलोक के ऊपर आई हुई ईषत्प्राग्भार पृथ्वीसिद्धशिला पर विराजमान हैं। आपने अक्षय, अविनाशी और अनन्त स्वरूप को प्राप्त किया है । आपने चार घाती और चार अघाती कर्मों का सर्वथा क्षय किया है । श्रापने अनन्त ज्ञान गुण, अनन्त दर्शन गुरण, अनन्त चारित्र गुण, अनन्त वीर्य, अगुरुलघुता, अरूपीपन, प्रव्याबाध सुख और अक्षयस्थिति इन आठ गुणों को प्राप्त किया है । आप कृतकृत्य होने के कारण 'सिद्ध' हैं । समस्त विश्व को जानने के कारण 'बुद्ध' हैं । भवसिन्धु के पार होने के कारण 'पारगत' हैं । सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र के क्रमशः सेवन से मोक्ष पाने के कारण 'परम्परागत' भी हैं । समस्त कर्मों से रहित होने के कारण 'मुक्त' हैं । जरादि का अभाव होने से 'अजर' हैं । प्रायुष्यकर्म का प्रभाव होने के कारण 'श्रमर' हैं । निखिल क्लेश के संग से मुक्त होने के कारण 'प्रसंग' हैं । ऐसे गुणों के योग से श्रीसिद्ध भगवन्त कल्याणकामी श्रात्माओं के लिए एकान्त रूप से प्राराधने योग्य हैं । भव्यजीवों Jain Education International श्रीमहादेवस्तोत्रम् - १३९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002760
Book TitleMahadev Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSushilmuni
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram Sirohi
Publication Year1985
Total Pages182
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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