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आप लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक हो, छद्मस्थपने से रहित हो, स्वयं जिन बने हो और अन्य को जिन बनाने वाले हो, स्वयं संसार-सागर से पार हुए हो और दूसरों को भी संसार-सागर से पार करने वाले हो, स्वय बोधि प्राप्त हो और अन्य को भी बोध प्रकटाने वाले हो, स्वयं मुक्त बने हो और दूसरों को भी मुक्ति दिलाने वाले हो, सर्वज्ञ हो और सर्वदर्शी भी हो, वीतराग हो, देवाधिदेव हो और तीर्थंकर भगवन्त भी हो ।
मोक्ष नगर में जाने वाले, वहाँ सादि अनंत स्थिति में सर्वदा रहने वाले और शाश्वत सुख प्राप्त करने वाले प्राप ही हो। आप श्री ने चतुर्विध श्रमण संघ रूपी तीर्थ की स्थापना की है। समस्त विश्व के जीवों पर आपका असीम उपकार है। जो भवसिन्धु से स्वयं तिरे हैं
और जिन्होंने दूसरे को तारने के लिए अनुपम मार्ग का प्रकाशन किया है, ऐसे भवसिन्धु तारक श्री अरिहंतदेव श्रीनवपद में प्रथमपदे पूज्य हैं।
ऐसे श्री अरिहन्त परमात्मा को हमारा अहनिश नमस्कार हो।
['श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन' (लेखक-पूज्याचार्य श्रीमद्विजयसुशीलसूरिजी म.)
ग्रन्थ में से उद्धृत]
भीमहादेवस्तोत्रम्-१३८
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