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भावः । " गुणाः पूजास्थानं गुरिणषु न च लिङ्ग न च वयः " इत्युक्त्यनुसारेण स्वस्य ताटस्थ्यं व्यञ्जयन्न पसंजिहीर्षुः श्रीवीतरागदेवं नमस्करोति ।। ४४ ॥
पद्यानुवाद -
"
भवरूपी बीजांकुर के उत्पादक रागादि का किया विनाशमूल से ही जिसने निजान्तर शत्रु का । ऐसे कोई ब्रह्मा हो विष्णु महेश या जिन हो उन विभु वीतराग को हो नमस्कार मेरा नित्य हो ॥ ४४ ॥
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शब्दार्थ
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यस्य = जिसके ।
भवबीजाऽङ्कुरजननाः = संसाररूपी बीज के अंकुर को उत्पन्न करने वाले । रागाद्याः = राग-द्वेष आदि । क्षयं विनाश को । उपगताः = प्राप्त हो गये हैं अर्थात् नष्ट हो गये हैं । वह नाम से ब्रह्मा = ब्रह्मा हो । वा = अथवा | विष्णुः विष्णु हो । । वा = अथवा | हरः.. महेश- महेश्वर हो । वाया । जिनः जिनेश्वर - तीर्थंकर कोई भी हो । तस्मै उस वीतराग देव को । नमः मेरा प्रणाम - नमस्कार है ।
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श्लोकार्थ -
जिसके भव-संसाररूपी बीज के अंकुर को उत्पन्न करने वाले राग-द्व ेषादिक नष्ट हो गये हैं, वह नाम से
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श्री महादेवस्तोत्रम् - १३१
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