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पद्यानुवाद
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अर्हन् जिनेश्वर देव ने पुण्य-पाप को जाना है तथा उपशम से युक्त ये सभी प्रकार से पूर्ण हैं । चैत्यवृक्षादि प्रष्ट प्रातिहार्यों से भी शोभित हैं इसलिये श्रर्हन् पद महीं नकार वर्ग कहा ही है ॥ ४३ ॥
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शब्दार्थ
च - तथा ।
पापं =
ज्ञात्वा = जानकर ।
पुण्यं पुण्य अर्थात् शुभकर्म । पाप अर्थात् अशुभ कर्म, इन दोनों को । च = भी । सन्तोषेरण - सन्तोष द्वारा अर्थात् श्रात्मा की तृप्ति से । श्रभिसम्पूर्णः सभी प्रकार से भरे हुए अर्थात् आत्मसुख में मग्न । च तथा । प्रातिहार्याSष्ट केन = चैत्यवृक्ष प्रादि आठ प्रातिहार्यों से विराजित हैं । तेन इसलिये । नकारः = अर्हन् पद में रहा हुआ नकाररूप वर्ण कहा जाता है ।
श्लोकार्थ -
पुण्य और पाप को जानकर, सन्तोष और आठ प्रातिहार्यों से सम्पूर्ण हुए हैं इसलिये अर्हन् पद में रहा हुआ नकार (न्) कहा जाता है ।
भावार्थ
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अर्हन् अर्थात् अरिहन्त श्रीतीर्थंकर परमात्मा पुण्य तथा
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श्रीमहादेवस्तोत्रम् - १२८
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