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'र' 'ह' विष्णु, ब्रह्मा तथा महेश का द्योतक अर्हन् स्वरूप है । यहाँ 'ह' की व्याख्या करते हुए कहा है कि जिन्होंने राग और द्वेष का समूल विनाश कर दिया है, मोह-ममता का भी त्याग किया है तथा क्षुधा ( भूख ) तृषा ( प्यास ) आदि बाईस परीषह इन सभी को भी समभाव से सहन किया है, कर्मों का भी क्षय किया है; ऐसे अर्हन् परमात्मा हैं । इसलिये राग, द्वेष, मोह, परीषह तथा कर्मों का विनाश करने के कारण, हनन का सूचक हकाररूप वर्णअक्षर 'अर्हन्' पद में कहा जाता है ।। ४२ ॥
[ ४३ ]
अवतरणिका -
अर्हन्नितिपदान्तस्थं नकारं निर्वक्ति
मूलपद्यम्
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सन्तोषेणाऽभिसम्पूर्णी, प्रातिहार्याष्टकेन च । ज्ञात्वा पुण्यं च पापं च, नकारस्तेन प्रोच्यते ॥
अन्वयः
'पुण्यं च पापं च ज्ञात्वा, सन्तोषेरण अभिसम्पूर्णः, च प्रातिहार्याऽष्टकेन, तेन नकारः प्रोच्यते' इत्यन्वयः ।
मनोहरा टीका -
पुण्यं शुभं कर्म ।
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च = तथा । पापं = अशुभं कर्म ।
श्रीमहादेवस्तोत्रम् - १२६
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