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कल्याण की। इच्छता=इच्छा करने वाले को। तस्य = उस वीतराग अरिहन्त जिनेश्वरदेव को ही। नमस्कारः= नमस्कार अर्थात् प्रणाम-वन्दन । कर्तव्यः = करना चाहिये। श्लोकार्थ
मोक्ष-कल्याण की अभिलाषा वाले जीव को पुण्य और पाप से मुक्त तथा राग और द्वेष से रहित ऐसे अर्हन् वीतराग श्रीजिनेश्वरदेव को ही नमस्कार-प्रणाम करना योग्य है। भावार्थ -
अर्हन् तीर्थंकर परमात्मा राग-द्वेष से रहित तथा पुण्यपाप से मुक्त वीतराग देव हैं। इसलिये मोक्ष-कल्याण चाहने वाले को इन्ही वीतराग जिनेश्वर देव को नमस्कार-प्रणाम करना चाहिये। इनकी ही सेवा-भक्ति करनी चाहिये । अन्य की नहीं ।। ३८ ।।
[३६ ] अवतरणिका -
तदेवं गुणतो ब्रह्माद्यात्मत्वं प्रतिपाद्य शब्दतः तदात्मत्वमाह--- मूलपद्यम् - अकारेण भवेद् विष्णुः, रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः। हकारेण हर प्रोक्त-स्तस्यान्ते परमं पदम् ॥ म -८
श्रीमहादेवस्तोत्रम्-११३
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