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पद्यानुवाद -
वीतराग देव ही सौम्य मूत्ति कान्तिवन्त शोभते , वह चन्द्र सम ही विश्व में सदा सुन्दर अति दीखते। ज्ञान प्रकाश हेतु से वह सूर्य सम कहे जाते हैं, क्षित्याद्यष्टगुरण युक्त ये अष्टमूत्ति स्वरूपी हैं ।। ३७ ।। शब्दार्थ. वीतरागः वीतराग अर्हन् श्रीजिनेश्वर देव । सौम्यमूत्तिरुचिः= सौम्यशरीरकान्ति वाले हैं, इसलिये चन्द्रः= चन्द्रमा के जैसे । समीक्ष्यते दोखते हैं। तथा, सः वह वीतराग अर्हन् जिनेश्वर देव । ज्ञानप्रकाशकत्वेन =ज्ञान के द्वारा प्रकाशकत्व यानी प्रकाशित करने का स्वभाव वाले होने के कारण । प्रादित्यः = सूर्य के समान । अभिधीयते= कहे जाते हैं। श्लोकार्थ -
वीतराग विभु सौम्य मूत्ति की कान्तिवाले होने से चन्द्र जैसे दीखते हैं, और ज्ञान के प्रकाश करनेवाले होने से वह ही सूर्य के समान कहलाते हैं । भावार्थ- वीतराग अर्हन् जिनेश्वर देव के देह की कान्ति सौम्य है, इसलिये वे चन्द्र के जैसे दीखते हैं। अर्थात् उनके
श्रीमहादेवस्तोत्रम्-१०६
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