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पद्यानुवाद -
तपोदानदयादिक थकी होती प्रात्मा यजमान है , वह गुण युक्त भी विश्व में सच्चे विभु वीतराग हैं। कर्ममलरहित प्रात्मा की निर्लेपता नभतुल्य है , उस गुरण से समलंकृत भी विश्वे विभु वीतराग हैं ॥३६॥ शब्दार्थ -
आत्मा=जीव (जिनेश्वर देव की आत्मा) । तपोदानदयादिभिः= तप, दान तथा दया इत्यादि गुणों से । यजमान:- यजमान यानी व्रती। भवेत् =होती है। तथा. सः वह आत्मा। अलेपकत्वात् = कहीं भी लिप्त नहीं होने से, अथवा कर्मरूपीमल से लिप्त नहीं होने के कारण । आकाशसङ्काशः = प्राकाश-गगनतुल्य । अभिधीयते = कही जाती है।
श्लोकार्थ -
तप, दान और दया आदि द्वारा आत्मा ही यजमान यानी व्रती कही जाती है, तथा वह आत्मा ही कर्म से रहित निर्लेपता होने से आकाश समान कही जाती है ।
भावार्थ -
आत्मा यही प्रभु स्वरूप वीतरागत्व से तप, दान, दया अहिंसात्मक युक्त एवं अपरिग्रहादि से यजमान स्वरूप है ।
श्रीमहादेवस्तोत्रम् - १०६
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