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८४-८७] अष्टाविंशतितमः सर्गः
१२८५९ कारिणी, इयं मे कृतिः कामिनीव कस्य कामसिद्धये कामस्य वाञ्छितस्य पक्षे तृतीयपुरु-- पार्थस्य सिद्धये पूर्त्यर्थं न स्यात्, अपितु स्यादेव ॥८३॥
सवृत्तकुसुममाला सुरभिकथाधारिणी महत्येषा ।
पुरुषोत्तमैः सुरागात् सततं कण्ठीकृता भातु ॥८४॥ सद्वृत्तेत्यादि-एषा मे कृतिः सत्वृत्तानामेव कुसुमानां छन्दःपुष्पाणां पक्षे वर्तुलाकारपुष्पाणां माला, या सुरभि कथां मनोहरां वार्ता पक्षे सुरभेः सुगन्धस्य कथां धरतीति सा, अत एव महती पूज्या, तस्मात् पुरुषोत्तमैः सज्जनः सुरागात् स्नेहात् संगीताद् वा सततं निरन्तरमेव कण्ठीकृता कण्ठस्थीकृता, कण्ठे धृता च भातु राजतात् ॥८४॥
यवालोकनतः सद्यः सरलं तरलं तराम् ।
रसिकस्य मनोभूयात् कविता वनितेव सा ॥८५।। यदेत्यादि-स्पष्टम् ॥८५॥
सदुक्तिमपि गृह्णाति प्राज्ञो नाज्ञो जनः पुनः ।
किमकूपारवत् कूपं वर्द्धयेविधुदीधितिः ॥८६॥ सदूक्तिरित्यादि-स्पष्टमिदम् ॥८६॥
कवयो जिनसेनाद्याः कवयो वयमप्यहो ।
कौस्तुभोऽपि मणिर्यद्वन्मणिः काचोऽपि नामतः॥८७॥ कवय इत्यादि-स्पष्टमिवम् ॥८७॥ (पक्षमें मेरी यह कृति-रचना, स्त्रीकी तरह लोकमें किसके काम-मनोरथ (पक्षमें काम पुरुषार्थ) की सिद्धिके लिये नहीं है, अर्थात् सभीके है ।।८।।
अर्थ-जो मनोहर कथाको धारण करने वाली है (पक्षमें सुगन्धको चर्चासे सहित है) महती-श्रेष्ठ अथवा पूज्य है ऐसी यह सद्वृत्तकुसुममाला-उत्तम छन्दरूपी पुष्पोंकी माला (पक्षमें गोल गोल फूलोंकी माला सुराग-स्नेह अथवा संगीतसे सज्जनों द्वारा कण्ठस्थकी गई (पक्षमें गले में पहिनी गई) निरन्तर सुशोभित हो । अर्थात् विद्वानोंके बीच इसका पठन-पाठन होता रहे ।।८४॥ ... अर्थ-जिसके देखनेसे रसिक मनुष्यका सरल मन अत्यन्त चञ्चल हो जाता है, वह कविता वनिता-स्त्रीके समान है ।।८५।। __ अर्थ-समीचीन उक्तिको भी बुद्धिमान् मनुष्य ही ग्रहण करता है, अज्ञानी नहीं । क्या चन्द्रमाकी किरण समुद्रकी तरह कूपको भी बढ़ाती है ? अर्थात् नहीं ॥८६॥ . - अर्थ-जिनसेन आदि कवि हैं और आश्चर्य है कि हम भी कवि हैं, परन्तु उस प्रकार, जिस प्रकार कि कौस्तुभमणि है और काच भी मणि है ।।८७॥
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