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________________ १२७४ जयोदय-महाकाव्यम् [५८-५९ नाय नाभूदिति विरोधः, तस्मात् गणभृद् मुनीनां नायकः सन् सर्वव सर्वदेव वैवस्य भाग्यवादस्य अनुमोवाय न बभूव, पुरुषार्थकरोऽभूदित्यर्थः ॥५७॥ . आत्मवृत्तिरजातत्वभूता गौरविणी कृता। तेनाविकृतमित्येवं वृषभावमुपेयुषा ॥५८॥ आत्मेत्यादि-आत्मनि वृत्तिर्यस्याः सा स्वभावतत्परा अपि अजा छागी तेन तस्वभृता रविणी गौः शब्दयुक्ता धेनुः कृता, अविकृतं मेषसम्पादितं वृषभावं बलीवर्वरूपम् उपयुषा इति विरोषः, तस्य परिहार एवम् अजातत्वभूता पुनर्जन्मग्रहणरहितेन तेनात्मवृत्तिः स्वकीया चेष्टा गौरविणो गौरवशालिनी कृता । अविकृतं स्वाभाविकं सहजसम्पन्न वृषभावं धर्मतत्त्वमुपेयुषा ॥५॥ पूरणायेत्यथो वाग्छन् घटकं प्राप्य चात्मनः । वनस्थानमभिज्ञोऽभूत् स प्रमोक्षोपसंग्रही ॥५९॥ पूरणायेत्यादि-अथो पूरणाय नगर कहलाय भवतीति वाग्छन् पुनः आत्मनः घटक सुसंवेवनवायकं वनस्थानं वाञ्छन् सोऽभिशो शानवान् प्रमोक्षोपसंपही अभूत् । किञ्च, प्रकार है कि वे गणभूत-मुनिसंघके स्वामी होकर भी सदैव-सदा दैव-भाग्यकी अनुमोदना-समर्थनके लिये नहीं थे, अर्थात् भाग्यवादी न होकर पुरुषार्थवादी थे । अबुद्धिपूर्वक सिद्ध होने वाले कार्योंको देवसिद्ध कहते थे और बुद्धिपूर्वक सिद्ध होनेवाले कार्योंको पुरुषार्थसिद्ध मानते थे ॥५७॥ ___ अर्थ-उन तत्त्वज्ञ जयकुमारने यात्मवृत्ति-अपने आपमें स्थिर रहने वाली अजा-बकरीको रविणी गौः-शब्द करती हुई गाय कर दिया, यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है कि अजातत्वभूता-पुनर्जन्म ग्रहणसे रहित जयकुमारने आत्मवृत्ति-अपनी चेष्टाको गौरविणी-गौरवशालिनी कर लिया था तथा अविकृत-मेषकृत वृषभाव-बलीवर्दपनको प्राप्त हुए जयकुमारने उपर्युक्त कार्य किया था, यह विरोध है, क्योंकि मेषके द्वारा बलीवर्दत्व कैसे किया जा सकता है ? परिहार इस प्रकार है-अविकृतं-विकाररहित-सहज स्वाभाविक वृषधर्मको प्राप्त तथा अजातत्वभूता-जन्मरहितत्वसे युक्त जयकुमारने आत्मवृत्तिअपनी चेष्टाको गौरविणी गौरवयुक्त-किया था ।।५८॥ अर्थ-पूः रणाय-नगर कलहके लिये होता है, अतः वे ज्ञानी जयकुमार आत्माके घटक-आत्मस्वरूपका अनुभव करनेवाले वनस्थान-एकान्त स्थानकी इच्छा करते हुए मोक्षतत्वको प्राप्त करनेवाले हुए थे। अर्थान्तर-अभिन-प्राणायामके ज्ञाता जयकुमार पूरणक्रिया-पवनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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