________________
१२६८
जयोदय-महाकाव्यम्
[४७-४८
शिवार्थ वृषभारुढः सवक्षपदमाश्रितः ।
सोमलब्धोत्तमानोऽपि यवहीनगुणाश्रयः ॥४७॥ शिवार्थमित्यादि-सोमात् नाम नृपात् लब्धं उत्तम अङ्गं येन स सोमलग्धोत्तमाङ्गः सोमात्मज इति यत् अहीनानां प्रशस्तानां गुणानामाश्रयः शिवाथं मोक्षनिमित्तं वृषं धर्ममारूढः, सतोऽक्षस्थात्मनः पदं वर्णसमूहं आश्रितः परमात्मनाम जपत्वाद् इति । तथा सोमेन चन्द्रमसा लब्धमुत्तमाङ्गशिरो यस्य स चन्द्रशेखरः, यत् अहीनस्य शेषनागस्य गुणस्याश्रयः स शिवार्थ पार्वतीनिमित्त वृषं वलीवदं आरूढः सम् महादेवो दक्षस्य नाम नृपतेः पदं स्थानमाश्रितः ॥४७॥
ज्ञानार्णवोदयायासीदमुष्य शुभचन्द्रता ।
योगतरवसमग्रत्वभागजायत सर्वतः । ४८॥ ज्ञानार्णवेत्यादि-यो जयकुमारो गतत्वं च समग्रत्वं च गतत्वसमग्रत्वे ते भजतीति गतत्वसमग्रत्वभाग भूतभावितत्त्वज्ञः सर्वतोऽजायत । एवममुष्य ज्ञानार्णवस्य ज्ञानसमुद्रस्य
अर्थ-सोम-सोमप्रभ राजासे जिन्हें उत्तमाङ्ग-उत्कृष्ट शरीर प्राप्त हुआ है तथा जो अहीन-उत्कृष्ट गुणोंके आधारभूत हैं, ऐसे वे जयकुमार शिव-मोक्षके लिये वृष-धर्मपर आरूढ़ होकर सदक्षपद-समीचीन आत्माके पद-वर्णसमूहको प्राप्त हुए थे, अर्थात् परमात्माके नामका जाप करनेमें तत्पर थे। ___अर्थान्तर-जिनका उत्तमाङ्ग-शिर सोम-चन्द्रमासे युक्त था, जो अहीनशेषनागके गुण अथवा शेषनाग रूप रज्जुके आश्रय-आधार थे तथा शिवापार्वतीके लिये जो वृष-बैलपर आरूढ थे, ऐसे वे शङ्कर दक्षपद-राजा दक्षके स्थान-घर गये थे ॥४७॥
अर्थ-जो जयकुमार सब ओरसे गतत्व और समग्रत्वको प्राप्त थे, अर्थात् अतीत-अनागत पदार्थों में उनका ज्ञान व्याप्त था और पूर्णत्वको प्राप्त था तथा ज्ञानरूपी समुद्रकी अभिवृद्धिके लिये जयकुमारके शोभायमान चन्द्रपना था, अर्थात् जिस प्रकार चन्द्रमा समुद्रको वृद्धिंगत करता है, उसी प्रकार जयकुमार अपने ज्ञानरूप समुद्रको वृद्धिंगत कर रहे थे। ___ अर्थान्तर-जयकुमार सब ओरसे योगतत्त्व-ध्यानरूप वस्तुकी पूर्णताको प्राप्त थे तथा ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थके उदयके लिये इनमें शुभचन्द्रपना था अर्थात् शुभचन्द्राचार्यने जिस प्रकार ज्ञानार्णव नामक योगशास्त्रकी रचनाकर योग-ध्यानको विस्तृत किया है, उसी प्रकार जयकुमारने भी शुक्ल ध्यानके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org