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________________ २५-२६ ] अष्टाविंशतितमः सर्गः १२५७ ईशायितां त्रिसन्ध्यं हि स्वीचकार महामनाः । नयेनावर्णवावश्च जनेषु प्रतिपादितः ॥२५॥ ईशायितामित्यादि-येन जनेषु अवर्णवादो निन्दाकरणं न प्रतिपादितः, स महामना उदारचित्तः त्रिसन्ध्यं सर्वदैव ईशस्य भगवतोऽयः शुभावहो विधिः यस्य तत्तां भगवद्भाजकतां स्वीचकार जयकुमारः । तथा येन नयेन नीतिमार्गेण जनेषु अवर्णवादः जातिवर्णरहितत्वं प्रतिपादितः, स महामना असाम्प्रदायिकचित्त ईशायितां क्रिश्चियनवृत्तितां स्वीचकारेति ॥२५॥ आत्मादरयुतेनापि सान्तस्थोष्मविहीनता। समक्षलक्षणार्थेषु वैकल्यमधिगच्छता ॥२६॥ आत्मेत्यादि-आत्मनि स्वरूपे आदरयुतेन तल्लीनेन, समक्षं लक्षणं येषां तेषु सांसारिकेषु अर्थेषु इन्द्रियगोचरेषु वैकल्यं निस्सारत्वमधिगच्छता जानता जयकुमारेण अन्तस्थस्योष्मणो मानसिकव्यथाया विहीनता सा प्रसिद्धा निराकुलस्थितिरापि प्राप्ता । तथा आत् अकारात्समारभ्य सकारे आदरयुतेन सम्पूर्णानामक्षराणां समक्षराणां क्षणः उत्सवः अवकाशो वा यत्र तेषु अर्थेषु सम्पूर्णाक्षरज्ञानेषु इत्यर्थः, वैकल्यमधिगच्छता अपूर्णत्वं कालसम्बन्धी समस्त तत्त्व प्राप्त कर लिया था, जान लिया था। तथा अन्यव्यवच्छेद रूपसे चित्तलक्षण-संवेदनमें स्थिति कर उन्होंने भूत-भविष्यत्के समस्त तत्त्वको जान लिया था ॥२४।। अर्थ-जिन्होंने मनुष्योंमें अवर्णवाद-निन्दा न करनेका उपदेश प्रतिपादित किया, उन उदारचित्त जयकुमारने सदा ईशायिता-भगवद्विषयक शुभ विधिसे सहित भावको स्वीकृत किया था। तथा जिस नोतिमार्गसे मनुष्योंमें अवर्णवादवर्ण-जाति आदि कुछ नहीं है, सब एक समान है, इस सिद्धान्तका प्रतिपादन किया था, उस नीति मार्गकी अपेक्षा उन उदारहृदय जयकुमारने ईशायिताक्रिश्चियन पनको स्वीकृत किया था ॥२५।। अर्थ-स्वरूपमें आदरसे सहित तथा प्रत्यक्ष लक्षणसे युक्त सांसारिक पदार्थों में विकलता-निस्सारताको जानने वाले जयकुमारने उस प्रसिद्ध मानसिक पीड़ाके अभावकी स्थितिको प्राप्त किया था। अर्थान्तर-अ से लेकर म पर्यन्तके अक्षरोंमें आदरसे युक्त तथा समस्त अक्षरविषयक ज्ञानमें अपूर्णताका अनुभव करनेवाले जयकुमारने अन्तस्थ और ऊष्मा वर्णों का असद्भाव स्वीकृत किया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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