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________________ १२३२ जयोदय-महाकाव्यम् [ ३४-३५ खिन्नो विमनाः सन् यदृच्छया स्वेच्छया कौतुकिना मद्यपद्यूतकरादीनां को तु भूमौ यथासुखं किन्न विशति तिष्ठति ? अपि तु तिष्ठत्येव । अपि चेष यत्किचित्करोति तदपि स्वकीयं वेशं नेपथ्यमक्लेशयन्नविराधयन् करोति । ही खेदप्रकाशने । 'कुशो मत्तेऽपि पापिष्ठे', 'ही विस्मयविषादयोः' इति च विश्वलोचने। अनुप्रासोऽलंकारः ॥३३॥ न चापलं शापलमेति जन्तोर्मुनीश उद्वेगभृतोऽपमन्तोः । उपैति चेदासनवैपरीत्यं भुवं विशोध्यानमथापचित्यम् ॥३४॥ न चापलमित्यादि-यो मुनीश: सोऽपमन्तोनिरपराधस्य जन्तोः प्राणिनः किन्तूगभृतो यस्मात्कारणात्पीडां गच्छतः शापं दुराशिषं लाति गृह्णाति तच्चापलं चपलभावं नैति निश्चलकासनेन तिष्ठति च । यदि कदाचिदासनस्य वैपरीत्वं परिवर्तनमुपैतिः | तदा भुवः स्थलमासनयोग्यमथचापचित्यं परिवर्तनीयमङ्गं च विशोध्य पुनरुपैति ॥३४॥ लालाविलोष्ठयादि निचूष्य को न सुधेति बुद्धचा प्रवरो मघोनः । सदारवर्गे पुनरेव रेतस्त्यजः समः कः प्रभवेदर्थतः ॥३५॥ लालाविलेत्यादि--सदारा गृहस्थास्तेषां वर्गे पल्या लालया थत्कधारयाऽऽविल ओष्ठोऽधर आदौ यत्र तत् कपोलप्रभृतिकमङ्गं निचूष्यात्रासौ सुधास्तीति बुद्धचा मघोनोऽपीन्द्रावपि प्रवरः को न भवति ? भवत्येव सर्वः। अथ पुना रेतस्त्यजः शुक्रमोक्षकस्य तु समः समान इतोऽस्यां धरायां कः प्रभवेत् ? किन्तु कोऽपि नैवेति काकूक्तिः ।। ३५।। मद्यपायी तथा जुआड़ी आदि कुतूहलप्रिय लोगोंकी भूमिमें सुखपूर्वक क्या नहीं प्रवेश करता? अर्थात् करती ही है तथा वहाँ अपनी वेषभूषाकी विराधना न करता हुआ इच्छानुसार कुछ भी कार्य करता है ॥३३॥ मर्थ-मुनिराज निरपराध एवं छटपटाते हुए जीवकी दुराशिषको ग्रहण करनेवाली चपलताको प्राप्त नहीं होते, अर्थात् अपने विहार और आदान निक्षेपणसे किसो जीवको पीड़ा नहीं देते। यही नहीं, यदि कभी उन्हें आसनपरिवर्तन करना होता है तो भूमि और परिवर्तनीय अङ्गको शोधकर-पीछीसे परिमार्जित कर आसन-परिवर्तनको प्राप्त होते हैं ॥३४॥ __ अर्थ-गृहस्थ जनोंमें लार आदिसे मलिन स्त्रीके अधरोष्ठ आदि अङ्गोंको चूष कर यह अमृत है, ऐसा मानकर कौन पुरुष इन्द्रसे बढ़कर नहीं होता है ? अर्थात् सभी होते हैं। इसी प्रकार शुक्र-मोक्ष करनेवालेके समान इधर कौन है ? अर्थात् कोई नहीं ॥३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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