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________________ सप्तविंशतितमः सर्गः अथानुजग्राह सभाभूदेव नराधिराजं जगदेकदेवः । स्वभावतः सद्विभवाय चारी तमोनुदेवं च मुदेऽधिकारी ॥१॥ अथेत्यादि - अथानन्तरं स्वभावत एव सहजभावतः सतां सुपुरुषाणां नक्षत्राणां च यो विभवः प्रसन्नभावस्तस्मै चारो विचरणं यस्य स तमोनुदन्धकारहर एवं च कृत्वा सुदे विनोदायाधिकारी यस्य स जगदेकदेवो जगत सर्वेषां जीवानामेको देवः प्रकाशदाता सभाभूत् संसद: स्वामी स च भाभूत् सूर्य: स नराधिराजं जयमनुजग्राहेवं निम्नरीत्येवेति समासोक्तिः । च पादपूर्ती ॥१॥ लभस्वाद्य विपद्युदारमाचारसारं सद्यो विलसद्विचार । निवेदयाम्यङ्ग गुणाधिकारमारम्भणीयं खलु योगिनारम् ||२॥ सद्य इत्यादि - अङ्ग हे ! विलसति स्फूर्तिमेति विचारो यस्य तस्य सम्बोधनं हे विलसद्विचार ! आचारस्य सारं यत्याचाररूपं गुणानां क्षमादीनामधिकारो यत्र तं खलु योगिनात्मोपयोगिनाऽऽरम्भणीयं तं विपदि चोदारं शरणभूतं तमहमद्य निवेदयामि वदामि । तं त्वं सद्य एव लभस्वाङ्गीकुरु । अरं शीघ्रमेव ॥२॥ अर्थ - तदनन्तर जो समवसरण सभाके स्वामी थे, जगत्के एक अद्वितीय देव थे, स्वभावसे ही सत्पुरुषोंके विभवके लिये जिनका विचरण होता था, जो अज्ञान तिमिरको नष्ट करने वाले थे तथा हर्षके लिये अधिकारी थे, अर्थात् सबको हर्षित करने वाले थे, ऐसे आदि जिनेन्द्र भगवान् वृषभदेवने राजा जयकुमारको इस प्रकार अनुगृहीत किया । अर्थान्तर - जो भाभृत् प्रभाको धारण करने वाला था, जगत्का अद्वितीय प्रकाश करने वाला था, स्वभावसे ही सद्विभव -नक्षत्रोंके विभवके लिये विचरण करने वाला था तथा विनोदके लिये अधिकारी था, ऐसे तमोनुद् -सूर्यने राजा जयकुमारको निम्न रीतिसे अनुगृहीत किया || १॥ अर्थ - हे शोभायमान विचारोंसे सहित ! जो विपत्तिमें शरणभूत है, क्षमादिअधिकारसे युक्त है तथा योगीके द्वारा धारण करने योग्य है, उस आचारसार- मुनिके आचारका में कथन करता हूँ, उसे तुम शीघ्र ही प्राप्त होओ-धारण करो ||२|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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