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________________ भक्ति विभोर हो स्तुति की। सौधर्मेन्द्रकी सभामें जयकुमारके शीलकी प्रशंसा सुन काञ्चना नामक देवी परीक्षाके लिये सुलोचनासे पृथक् बैठे हुए जयकुमारके सामने हावभाव प्रकट करते हुए उसने संभोगकी प्रार्थना कर प्रणय याचना की परन्तु जयकुमार शीलसे विचलित नहीं हुए। अन्तमें वह एक राक्षसीका रूप धर जयकुमारका अपहरण करने लगी इसी बीच सुलोचनाने आकर उसे डांटा । अन्तमें उसने असली रूपमें प्रकट हो जयकुमारकी प्रशंसा की। इस घटनासे जयकुमारके हृदयमें वैराग्य भावकी उत्पत्ति हुई। पञ्चविंशतितम सर्ग ११४१-११७३ जयकुमारका वैराग्य चिन्तन । अनेक दृष्टान्तों द्वारा संसार परित्यागका दृढ़ निश्चय। षड्विंश सर्ग ११७४-१२१८. जयकुमारने समारोह पूर्वक अपने पुत्र अनन्तवीर्यका राज्याभिषेक कर उसे राजनीतिका उपदेश दिया । जयकुमारका भगवान् आदिनाथके समवसरणमें जाना। प्रसंगवश समवसरणका वर्णन । तदनन्तर भगवान् आदिनाथके चरणोंका सांनिध्य पाकर जयकुमार के नेत्रोंमें हर्षके आंसू छलक उठे। विनयपूर्वक भगवान्की स्तुति की। सप्तविंशतितम सर्ग १२१९-१२४९ आदि जिनेन्द्रदेवके द्वारा धर्मोपदेश । संसारकी स्थितिका वर्णन । जिसे सुनकर जयकुमारने हर्ष पूर्वक निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण की। अष्टाविंशतितम सर्ग १२४६-१२६४ जयकुमारको मुनि अवस्थाका वर्णन । तपश्चरणकी चर्चा । गणधर पदपर प्रतिष्ठित होना। निर्वाण प्राप्त करना । पूर्व कवियोंके स्मरणपूर्वक काव्यका समारोप । हिन्दी टीकाकारका किंचिन्निवेदनम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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