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________________ त्रयोविंशतितमः सर्गः समयं राज्यं विजयाय नाकुलोऽनुजाय चामुत्र हितान्वितान्तरः । प्रजाप्रियोपायपरः प्रियाश्रयानुतर्षहर्षेण सुखी व्यराजत ॥१॥ समयेत्यादि-स जयकुमारोऽमुत्र परलोकार्थ हितेनान्वितमन्तर्भवमान्तरमिङ्गितं यस्य स तथा प्रजायाः प्रियो हितकरो यः कोऽप्युपायस्तस्मिन् परः संलग्नो विजयाय नामानुजाय लघुभ्रात्र राज्यं समर्प्य नाकुलो व्याकुलतारहितो भवन् केवलं प्रिया सुलोचनवाथयो यस्थतादृशोऽनुतर्षोऽभिलाषो यत्रेदशेन हर्षेण व्यराजत सुखी ॥१॥ भयापहारिण्यमुकस्य शासने बभावपोयं प्रभयान्विता प्रजा। अनारतं नोतिबलप्रचारकेऽप्यनीतिभावः प्रसृतोऽभवक्षितौ ॥२॥ भयेत्यादि-अमुकस्य जयकुमारस्य शासने भयस्यापहारिणि नाशकेऽपि प्रजा प्रभयेन घोरातकैनान्विता युक्ता बभाविति विरोधस्तस्य परिहारः प्रभया शोभयान्विता बभाविति । तथानारतं निरन्तरं नोतिबलस्य प्रचारकेऽमुकस्य शासने क्षिती भुवि किलानौतेरन्यायस्य भावः प्रसृतः प्रचलितोऽभवदिति विरोधस्तस्य परिहारोऽतिवृष्टपादिभावस्याभावोऽभूविति । विरोधाभासोऽलंकारः ॥२॥ अर्थ-तदनन्तर जिनका अन्तरङ्ग पारलौकिक हितसे सहित है, जो प्रजाके हितकारी उपायों-कार्योंमें संलग्न है तथा विजय नामक छोटे भाईके लिये राज्य सौंपकर निराकुल हुए हैं, ऐसे जयकुमार मात्र प्रिया-सुलोचना सम्बन्धी अभिलाषासे युक्त हर्षसे सुखो होते हुए सुशोभित हो रहे थे ॥६॥ अर्थ-राजा जयकुमारका शासन यद्यपि भयापहारी-भयको नष्ट करने. वाला था फिर भी उसमें प्रजा प्रभवान्विता-प्रकृष्ट बहुत भारीसे सहित थी यह विरोध है परिहार पक्ष में प्रभयान्विता-प्रकृष्ट-भा-कान्तिसे सहित थी। इसी प्रकार उनका शासन यद्यपि निरन्तर नीतिबलका प्रचारका था तथापि उसमें पृथिवीपर अनोतिभाव-फैला हुआ था। यह विरोध है परिहार पक्षमें अनीतिभाव-अतिवृष्टि आदि 'ईतियोंका अभाव विद्यमान था ॥२॥ १. अतिवृष्टिरनावृष्टिमूषकाः शलभाः शुकाः । प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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