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________________ १०३२ जयोदय-महाकाव्यम् ५२ __ तमसीत्यादि-ईशितुः स्वामिनो नखं लातीति नखलस्तेन यद्वा न खल इति नखलोऽदुर्जनस्तेन कलेन रलयोरभेदात्करेण हस्तेन तमसि शार्वरे सति यद्वा तमोनामके गुणे सति उद्धतत्वेन समुन्नतभावेन यद्वाभिमानितया खण्डितौ मर्दनमाप्तौ पराजितौ दोषोज्झितो दोषेण रहितौ यद्वा दोषया रात्र्या रहितो भूत्वा पुनरिह ह्रिया लज्जयेव खलु सुतनोः शोभनशरीरायास्तस्या हितौ हितरूपौ तौ कुचौ स्तनावावृतिमवापतुरिहास्मिन् जगद् जगति । अर्थात् प्रमत्तभावेनोद्धतो जनः केनापि यदा विजितो भवति तदा लज्जितः सन् मुखावृति करोति तथैव कुधावपीति ॥५१॥ नावान्ता सा नदी जयेन सम्मानिता सुवर्षभयेन । सागरमेनमवापामध्यं सा तु वृतमिवमभूदवध्यम् ॥५२॥ नावान्तेत्यादि-जयेन सा नावा जलयानेन कृत्वान्तः प्रान्तो यस्यास्सा नावान्ता यद्वा न विद्यतेऽवान्तो यस्यास्सा नावान्ता नदी सम्मानिता सा सुलोचना सुवर्षमयेन वर्षणमेव वर्षः शोभनो वर्षः सुवर्षस्तन्मयेन मुहुर्वर्षणशीलेनेति । किञ्च शोभनो वर्षोऽष्टावशसंख्याकः संवत्सरस्तन्मयेन नवयौवनसम्पन्नेन तेन सा नाकारो वान्ते प्रान्ते यस्यास्सा नावान्ता र्थान्नदीना दोनतारहिता सम्मानिता सा सुलोचना पुनरेनं जयकुमारं सागरमवाप मध्यमाक्षरं विना कृत्वा सारमित्यवाप तेनैवानुरागिगो बभूव नदी च सागर मवापेति युक्तमेव तावत् ॥५२॥ अर्थ-सुन्दर शरीरवाली सुलोचनाके हितकारी स्तन उद्धतता--अभिमान अथवा ऊँचाईके कारण रात्रिसम्बन्धी अन्धकार अथवा तमोगुणके सद्भावमें नखल-नखयुक्त ( पक्षमें सज्जन ) जयकुमारके हाथके द्वारा खण्डित किये गये पश्चात् दोषा-रात्रि अथवा अभिमानरूप दोषसे रहित होनेपर लज्जासे ही मानों उन्होंने इस जगत्में आवरणको प्राप्त किया था-अपना मुंह छिपा लिया था ॥५१।। भावार्थ-जिस प्रकार कोई अहंकारी पुरुष किसीसे पराजित हो लज्जावश अपने आपको छिपा लेता है, उसी प्रकार सुलोचनाके स्तनोंने भी जयकुमारके हाथोंसे पराजित हो अपने आपको लज्जावश छिपा लिया था ॥५१॥ ___ अर्थ-नावके द्वारा जिसका (आ + अन्त = आन्त) सब ओरसे अन्त किया जाता है, ऐसी गहरी नदी स्वरूप वह सुलोचना सुवर्षमय-अच्छो वर्षा करने वाले मेघस्वरूप जयकुमारके द्वारा सन्मानित हुई थी, अर्थात् जलसे परिपूर्णकी गई थी, इसीलिये वह अमध्य-श्रेष्ठ सागरको प्राप्त हुई थी यह उचित ही है, क्योंकि नदी समुद्रको प्राप्त होती ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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