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________________ ६१-६४ ] एकविंशततम सर्गः सञ्चलद्ध्वजबृहत्तरङ्गिणी । आतपत्रसितफेनरङ्गिणी चन्द्रहासशषलासवाहिनी निस्ससार विभवेन वाहिनी ॥ ६१ ॥ आतपत्रेत्यादिद- तस्य वाहिनी नाम सेना सैव नदी याऽऽतपत्राण्येव सिताः समुचिताः फेनास्तेषां रङ्गवती रङ्गिणी तथा सञ्चलन्तो ये ध्वजास्त एव बृहत्तरङ्गास्तद्वती तथा चन्द्रहासा असयस्त एव झषा मोनास्तेषां लासस्य नृत्यस्य नाहः सम्बन्धस्तद्वतीति विभवेन समारोहेण निस्ससार ॥ ६१ ॥ ९९३ अवलम्बितमत्तवारणत्रजमत्यादरतो महीपतिः । विरहादिव लम्बितालकां नगरीमेष ददर्श सम्प्रति ॥ ६२ ॥ अवलम्बितेत्यादिद- एष महीपतिर्जयकुमार: सम्प्रति कालेऽवलम्बिता मत्तवारणलक् किल वन्दनवारमाला यस्यास्तां स्वीयां नगरीं विरहाच्चिरवियोगादिव किल लम्बिता अलकाः केशा यस्यास्तामत्यादरतोऽतिशयप्रीतिभावतो ददशैत्युत्प्रेक्षालंकारः ॥ ६२ ॥ गगनंकष मन्दिरध्वजा मरुता सत्तरलाञ्चला सती । प्रथमं खलु वीक्षिता जनैर्यदि वा स्वागतमेव तन्वती ॥६३॥ गगनं कषेत्यादि- — तत्र सर्वप्रथमं जनैर्मरुता वायुना सत्तरलमञ्चलं यस्यास्सा सती गगनंकषस्य व्योमचुम्बिनो मन्दिरस्य जिनस्थानस्य ध्वजा यदि वा खलु स्वागतमेव तन्वतीति वीक्षिता दृष्टाभूवित्युत्प्रेक्षालंकारः ||६३॥ पुरसीम्नि पुनः पदातयोऽथ पवाञ्चौ विनियम्य चक्रिरे । परिशोध्य हि पादरक्षिके उपसंव्यानकविस्तरं तराम् ||६४ ॥ अर्थ- जो छत्ररूपी योग्य फेनके रङ्गसे सहित थी, हिलती हुई बड़ी-बड़ी ध्वजारूप तरङ्गोंसे युक्त थी तथा तलवाररूपी मछलियोंके नृत्यसे सम्बद्ध थी, ऐसी वह सेना रूपीनदी समारोहसे निकल रही थी, आगे बढ़ रही थी ||६१ ॥ अर्थ - जिसमें वन्दनवार मालाएँ लटक रहीं थी और उनसे जो विरहके कारण केशोंको मानों खुले रखे हुई थी, ऐसी उस नगरीको प्रवेशके समय राजा जयकुमार बड़े आदर से देखा || ६२|| Jain Education International अर्थ — सबसे पहले लोगोंने गगनचुम्बी मन्दिरकी ध्वजा देखी । उस ध्वजाका अञ्चल वायुसे चञ्चल हो रहा था । इससे ऐसी जान पड़ती थी, मानों स्वागत ही कर रही हो || ६३|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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