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________________ ५५-५७] एकविंशतितमः सर्गः मन्थनातिशयतः समुच्चलत्तक्रबिन्दुनिकरोऽकरोद्धियः । पोवनस्तनतटेऽथ संसजन् यत्र मौक्तिकसुमण्डलश्रियः ।।५५॥ मन्थनातिशयत इत्यादि-अथ यत्र गोपयोषितां मध्ये मन्यनस्थातिशयतो वेगतः समुच्चलतां तक्रस्य बिन्दूनां निकरः समूहः स च पीवरे सुपुष्टे तासां स्तनतटे संसजन् विलगन् सन् मौक्तिकानां सुमण्डनस्याभूषणस्य श्रियः शोभाया धियो बुद्धीरकरोत् ॥५५॥ मन्थकर्मणि जुषः कुचद्वयं गर्गरीमतुलयद्यतः स्वयम् । व्युत्थमस्तुलवयोगतो हसद् घूर्णते स्म किल विस्फुरदृशः ॥५६॥ मन्थेत्यादि-मन्यकर्मणि जुषो दधिविलोडनतत्पराया विस्फुरती दृशौ चक्षुषी यस्यास्तस्याः कुचद्वयं स्तनयोर्युगलं यतः स्वयं गर्गरों तां किलातुलयत् तुलारूढां चकार, तदा व्युत्था अर्थादुत्थाय लग्ना ये मस्तुलवा दधिबिन्दवस्तेषां योगतः सम्बन्धतो हसत् सद् घूर्णते स्म । एषाप्युत्प्रेक्षेव ॥५६॥ मन्थिनीमदधिसन्निभामहीशानसुन्दरगुणेन यत्र ताः । लोडयन्ति ललनाः स्म मन्दरप्रायमन्थकलिनाऽमृताय ताम् ॥५७॥ मन्थिनीत्यादि-यत्र ता ललना गोप्योऽहीनां सर्पाणामीशानः शेषस्तद्वत् सुन्दरो यो गुणो मन्थनरज्जुस्तेन मन्दरप्रायः पर्वततुल्यश्चासौ मन्थो मन्थानदण्डस्तस्य कलियंत्र तेनामृताय घृताय पीयूषायेव लोडयन्ति स्म तामित्युपमा। 'मन्थो मन्थानदण्डे स्यादिति', 'अमृतन्तु घृते दुग्धे' इति च विश्वलोचने ॥५७॥ अर्थ-वहाँ मन्थनकी अधिकतासे उछल-उछल कर छाछकी बंदोंका जो समूह गोपाङ्गनाओंके स्थूल स्तनोंपर लग रहा था, वह मोतियोंसे निर्मित आभूषणकी शोभा सम्बन्धी बुद्धिको उत्पन्न कर रहा था ॥५५।। अर्थ-मन्यन क्रियामें संलग्न चञ्चल नेत्रों वाली गोपीके स्तनयुगलने स्वयं गर्गरीको तोला था, अर्थात् परिमाणमें गर्गरीसे अधिक विस्तारको प्राप्त किया था, इसलिये वह उछल कर लगे हुए दहीके कणोंसे मानों हंसता हुआ हिल रहा था, अर्थात् विजयके कारण हँसता हुआ झूम रहा था ॥५६॥ अर्थ-जिस प्रकार देवोंने शेष नागको मन्थन रज्जु और मन्दरगिरिको मथानी बनाकर अमृत प्राप्तिके लिये समुद्रका मथन किया था, उसी प्रकार वे गोपियाँ समुद्रके समान विस्तृत मटकीको शेषनागके समान श्वेत वर्णवाली मन्थनरज्जु और पर्वतके समान विशाल मन्थान दण्डको लेकर कल-कल करती हुई अमृत-घृतके लिये विलोडित कर रही थीं ॥५७।। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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