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________________ ९१६ ज्योदय-महाकाव्यम् [६१-६२ निःशाणं ध्वजदण्डं समुद्धरति यत्खलु बहुपरिमाणं भवति । बहुरनल्पः परिमाणः कोतिविस्तारो यस्य तं। तथा दुर्मतानां प्रहारणं सौगताविसंकलितानामुच्छेवनं येन तं निजध्वजं धरातलेऽस्मिन् भूलोके समुखरतीति । 'ओं अहं णमो परमोहि जिणाणं' इत्याविना जपितेनानुकूल्यं भवति प्रतिकूलस्येति ॥६०॥ पुनर्णमो सव्वोहि जिणाणं येऽनुभवन्तितमा निर्वाणम् । णमो अणंतोहि जिणाणं वानन्तसुखसय किलाप्यवलम्बात् ।।६१॥ पुनरित्यादि-पुनस्तदनन्तरं 'णमो सम्वोहि जिणाणम्' इति ये सर्वावषिषारका जिना निर्वाणं मुक्तिप्रापणमनुभवन्तितमा सविधिज्ञानं नहि मिथ्यावृशां भवति, किन्तु. चरमशरीरिणां मुनिवराणामेव भवति । 'ओं ही अहं गमो सम्वोहि जिणाणं' इत्याविनानेन मन्त्रणाक्षिरोगनाशनं भवति । तथा 'णमो अणंतोहि जिणाणं' ये जिना अनन्तसुखस्यातीन्द्रियस्यानन्दस्यावलम्बात् पूज्याः सन्तिः तावत् । 'ओं ह्रीं अहं अर्णतोहि जिणाणं' इत्यादिना मन्त्रण कर्णरोगोपहारो भवति ॥६१॥ णमो कुट्ठबुद्धीणं तावदित्यनेन भवतात् सद्भावः । णमो बीजबुद्धीणमिवानों संसारोऽसौ यतोऽवसानी ॥६२॥ णमो इत्यादि-गमो कुबुद्धीणं' इत्यनेन तावज्जपितेन सद्भावः समीचीन: करने तथा मिथ्यामतोंका खण्डन करने वाला है। 'ओं ह्रीं अहं णमो परमोहिजिणाणं' इत्यादि मन्त्र जपनेसे प्रतिकूल कार्यमें भी अनुकूलता होती है ॥६० अर्थ-चतुर्थ दलपर जो 'मो सम्बोहि जिणाण' लिखा है, उसका भाव यह है कि सर्वावधि ज्ञानके धारक मुनि नियमसे निर्वाण-मोक्षका अनुभव करते हैं। क्योंकि यह ज्ञान चरमशरीरी मुनियोंके ही होता है । 'ओं ह्रीं बह गमो सम्बोहि जिणाणं' इत्यादि मन्त्रके जापसे नेत्र सम्बन्धी रोग नष्ट होता है । पञ्चम दलपर जो 'णमो अणंतोहि जिणाणं' लिखा है, उससे सूचित किया गया है कि अनन्तावधि ज्ञानको धारण करने वाले जीव अनन्त सुखके आधार होते हैं। बों ह्रीं अहं णमो अणंतोहिजिणाणं' इत्यादि मन्त्रके जापसे कर्ण सम्बन्धी रोग नष्ट होता है ॥६१॥ ___ अर्थ-षष्ठ दलपर जो ‘णमो कुट्ठबुद्धीणं' लिखा है, उसके जपनेसे अच्छे भाव होते हैं। ओं ह्रीं अहं णमो कुट्ठबुद्धीणं' इत्यादि मन्त्रके जापसे अच्छे भाव होते हैं तथा शूल और गुल्म (गलगण्ड) आदि रोग नष्ट होते हैं। तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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