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________________ ९१४ जयोदय-महाकाव्यम् [५६-५७ षट्क 'अप्रतिचक्रे फट्' इत्येवं, ततश्च विलोमषदकं विचक्राय झों झो' एवंरूपं पुनरन्ते होमाभिधं स्वाहा नामेत्येवं लात्वा 'ॐ ह्रां ह्रीं ह्रह्रौं ह्रः असि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट विचक्राय झों झों स्वाहा' एवंरूपकं महामन्त्र ताववजपत् सः ॥५५॥ तत्पञ्चबाणातिनिवारणाय पञ्चप्रमाणप्रतिपूरणाय । षट्खण्डसम्पत्तिसमर्थनाय षड्वैरिवर्गस्य कवर्थनाय ॥५६॥ आवावथोमादरणाय दत्तं प्रान्त पुनः सम्फलने प्रवृत्तम् । वर्णावली कल्पलतेव तेन साऽवापि संकल्पमहीरहेण ॥५॥ तदित्यादि-तत्र मूलमन्त्र निहितं तच्छ्न्याक्षरपञ्चके पञ्चबाणस्य कामस्यातः पीडाया निवारणाय भवति । शुभाक्षरपञ्चकं पञ्चानां प्रमाणानां मत्यावीनां प्रतिपूरणाय पूर्तिकरणाय । अनुलोमषट्कं षट्खण्डानामार्यावर्तादीनां सम्पत्तः समर्थनाय । विलोमषट्कं षण्णां वैरिणां मवक्रोधादीनां वर्गस्य कदर्थनाय परिहरणाय । अथावौ ओङ्कारमक्षरं तवावरणाय विनयप्रकाशनाय दत्तम् । प्रान्तं पुनरन्तगतमक्षरद्वितयं सम्फलने फलितप्रवानार्थे प्रवृत्तमित्येव सा पूर्वोक्ता वर्णावली तेन संकल्पो नाम महील्होऽसौ कल्पपादपो यस्य तेन कल्पलतेवाऽवापि प्राप्ता। एवं मूलमन्त्राराधनं कृत्वा पुनरष्टचत्वारिंशत्सु बलेषु क्रमशो मन्त्रनिवेशनं यत्तदेव निवेदयतीति यावत् ॥५६-५७॥ और अन्तमें स्वाहा शब्दको लिखकर जो मन्त्र बनता है, उसका राजा जयकुमार जप किया। मन्त्रका रूप इस प्रकार है ॐ ह्रां ह्रीं ह्रीं ह्रौं ह्रः असि आ उसा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झों झों स्वाहा ॥५५॥ ____अर्थ-उस मूल मन्त्रमें निहित जो पाँच शून्याक्षर ("ह्रां ह्रीं ह्र. ह्रौं ह्रः') हैं, वे कामबाधाकी पीड़ाका निवारण करनेके लिये हैं । पाँच शोभनाक्षर 'असि आउसा' मतिज्ञान पांच प्रमाणोंकी पूर्तिके लिये हैं। छह अनुलोमाक्षर 'अप्रतिचक्रे फट' आर्यावर्त आदि छह खण्डकी सम्पत्तिका समर्थन करनेके लिये हैं। छह विलोमाक्षर 'विचक्राय झों झौं' काम, क्रोध आदि शत्रुओंको कदर्थित-नष्ट करनेके लिये हैं। आदिमें जो ॐ अक्षर दिया है। वह आदर-विनयभाव प्रकाशित करनेके लिये है और अन्तमें जो स्वाहा नामक दो अक्षर दिये गये हैं, वे संकल्पित पदार्थोंको फलित करनेके लिये हैं । इस तरह पूर्वोक्त वर्णावली संकल्परूप वृक्षसे युक्त राजा जयकुमारके द्वारा प्राप्त की गई। इस प्रकार मूलमन्त्रको आराधना कर अड़तालीस दलों-पत्रोंपर मन्त्रके विनिवेशका कथन करते हैं ॥५६-५७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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