SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७-३८] एकोनविंशः सर्गः ९०५ हितैषिणी त्वं जगतां विभासि मातेव यस्मा त्पृथुपुण्यराशिः । सुचारु वृद्धैरपि मेति नाम तव प्रदत्तं सुतरां वदामः ॥३७॥ हितैषिणीत्यादि-हे लक्ष्मि ! त्वं मातेव पृथुनः पुण्यस्य राशिः समूहो यस्याः सा सती जगतां समस्तानामपि प्राणिनामपि हितैषिणी सुखकों विभासि यस्मात्तस्माद्वद्धः फविभिरपि प्रदत्तं मेति तव नाम सुतरां स्वयमपि सुचार सुन्दरमिति वयमपि वदामः । मातरमपि त्वामपि च मामिति वदन्ति यतः ॥३७॥ कामप्रसूः सम्प्रति लोकमातस्त्वमर्हतः कामजितः प्रियाऽतः । वामा न वामानव संस्तुतस्य पुराणसंवादसथितस्य ॥३८॥ कामप्रसूरित्यादि-हे लोकमातस्त्वं सम्प्रति कामजितः कामहरणस्याहतो भगवतः प्रियापि कामप्रसूः कामजन्मदात्रीति विरोधे त्वं कामप्रसूञ्छितक/ति परिहारः, अतोऽस्मात्कारणात्पुराणः प्राचीनो योऽसौ संवादस्तेन समर्थितस्यापि नवो नूतन इत्येवं संस्तुतस्य वामापि न वामासीत्येवं विरोधे पुराणानां प्रथमानुयोगशास्त्राणां योऽसौ संवादः सम्यक्कयनं तेन सथितस्य प्रशंसितस्यात एव मानवैः संस्तुतस्य प्रशस्तस्य, यद्वा मानवेषु मध्ये संस्तुतस्य सर्वोत्तमनावं गततया प्रशस्तस्य नवा मनोहरा वामा वामभागवतिनीति ॥३८॥ भावार्थ-यतश्च आपका 'कमला' नाम कल्याण, माला और लाभके आदि अक्षरोंसे बना है, अतः यदि आप मेरे हृदय में स्थिर रहेंगी तो मुझे भी कल्याणमङ्गल, महत्त्व-बड़प्पन और लाभ-वाञ्छित फल की प्राप्ति होनेसे उत्पन्न मनस्तोष प्राप्त होंगे ॥३६॥ ___अर्थ-हे लक्ष्मि ! जिस कारण आप विशाल पुण्यकी राशि स्वरूप होनेसे माताके समान समस्त प्राणियोंका हित चाहनेवाली हैं, इस कारण वृद्ध कविजनों ने भी आपको 'मा' यह सुन्दर नाम दिया है, यह हम अच्छी तरह कहते हैं ।।३७।। ___ अर्थ हे लोकमातः ! आप कामजित:-कामको जीतने वाले अर्हन्त की प्रिया होकर भी कामप्रसूः-कामको उत्पन्न करने वाली हैं, यह विरोध है। परिहार पक्षमें आप मदनविजेता अर्हन्तकी प्रिया-इष्ट होकर कामप्रसूः-वाञ्छित पदार्थको देनेवाली हैं। इमी प्रकार 'ये पूराण-प्राचीन हैं' इस प्रकारके संवादसे समर्थित होने पर भी 'ये नव-नवीन हैं' इस प्रकार संस्तूत अर्हन्त भगवानकी वामा-मनोहारिणी होकर भी वामा न-मनोहारिणी नहीं हैं, यह विरोध है । परिहार पक्ष में पुराणसंवादसथितः-प्रथमानुयोग सम्बन्धी शास्त्रोंके सम्यक कथन से समर्थित और मानवसंस्तुत-मनुष्यमात्रके द्वारा प्रशंसित अर्हन्त भगवान्की नवा-मनोहर होकर वामा-वाम भागवर्तिनी हैं, अर्थात् मूर्तिनिर्माणमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy