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________________ जयोदय- महाकाव्यम् [ ३५-३६ निसर्ग एषोऽपि तवाथ भातु विसर्गलोपं सहसे न जातु । उद्दिश्यमाना त्रिजगद्धिता या हे लक्ष्मि! मां मातृवदाशु पायाः || ३५ ॥ निसर्ग इत्यादि - हे लक्ष्मि ! तवैष निसर्गः स्वभाव एव भातु यत्किल त्वं वै सर्गस्य स्वरूपापेक्षया त्यागलक्षणस्य दानस्य शब्दस्वरूपापेक्षया तु पुरोभागवर्तिनो बिन्दुद्वयाकारस्य लोपमभावं न सहसे, यतो व्याकरणशास्त्रदृष्ट्या लक्ष्मीतिशब्दस्य प्रथमैकवचने सम्प्राप्तस्य विसर्गाभावस्य लोपो न भवति, यथा नद्यादिशब्दस्य भवति । तथा च ये लक्ष्मीवन्तो भवन्ति ते दानशीला अपि स्वभावत एव सम्भवन्तीति यावत् । हे मातस्त्वमुद्दिश्यमाना नाममात्रतोऽपि निर्दिष्टा सती त्रयाणामपि जगतां हितं पथ्यं यत्र सा त्रिजगद्धिता । तस्मात्त्वं मामपि मातृवदाशु शीघ्रमेव पायाः ॥ ३५ ॥ १०४ वर्णेष्वभिधाश्रिताभा । यस्याश्च कल्याण महत्त्वलाभादिमेषु त्रिवर्गभिः साम्प्रतमभ्युपास्या हे देवि ! मे त्वं मनसि स्थिरा स्याः ॥ ३६ ॥ यस्या इत्यादि - कल्याणं नाम मङ्गलं महत्वं नाम गौरवं लाभो नाम वाञ्छितप्राप्तिस्तुप्तिभावस्तेषां त्रयाणामादिमेषु वर्णेषु यस्या अभिधयाऽऽख्ययाश्रिताऽऽभा वर्तते 'कमला' नामेत्येवंरूपा, सा त्वं हे देवि ! त्रिवर्गभिर्धर्मार्थकामपुरुषार्थ पक्षपातिभिगृहस्थैः साम्प्रतमधुनापि, अभ्युपास्याऽऽराधनीया सम्भवसि सा त्वं मे मनसि चित्तऽपि स्थिरा स्याः सम्भवेरिति ॥ ३६ ॥ भावार्थ - परमार्थसे न हीरा आदि लक्ष्मी है और न मोती आदि । अतः आपका न पृथिवीके भीतर निवास है और न समुद्रके भीतर । ज्ञान- दर्शनादि अनन्तचतुष्टय ही वास्तविक लक्ष्मी है और उनका निवास प्राणिमात्रके हृदय में है ||३४|| हिन्दी - हे लक्ष्मि ! आपका यह स्वभाव भी सुशोभित रहे सदा विद्यमान रहे कि आप कभी विसर्गके लोपको सहन नहीं करतीं, अर्थात् परमार्थसे आपका जो दान स्वभाव है, उसे कभी नहीं छोड़ती और शब्द स्वरूपकी अपेक्षा आप लक्ष्मी शब्दके आगे रहनेवाली विसर्गोंको नहीं छोड़ती । नामोच्चारण मात्र से आप त्रिजगत्का हित करनेवाली हैं, अतः माता के समान आप शोघ्र ही मेरी रक्षा करें ||३५|| अर्थ - जिसके नामके अक्षर कल्याण, महत्त्व और लाभ इन तीन शब्दों के आदि अक्षरों में निहित हैं, अर्थात् जिसका 'कमला' नाम है तथा जो धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्गके धारक गृहस्थोंके द्वारा इस समय भी सेवनीय है, ऐसी है देवि ! आप मेरे हृदय में स्थिर रहें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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