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________________ रचनाओंको उनका वर्तमान रूप प्रदान करते हैं, उन्हें महाकवि कहा जाता है। ब्रह्मचारी भूरामल निश्चयतः महाकविकी श्रेणी में स्थापित होते हैं । विषयप्रधान रचनाओंमें पूर्ववर्ती कवियोंके कृतिवैशिष्टयोंका साक्षात् अथवा असाक्षात् रूपसे अनुहरण अस्वाभाविक नहीं कहा जाएगा । नैषधीय चरितमहाकाव्यपर कालिदास एवं माघके काव्योंका प्रभाव विशेषतः परिलक्षित होता है । रघुवंशके इन्दुमती स्वयंवर वर्णनकी छाप दमयन्ती स्वयंवर वर्णनपर स्पष्टतः दिखाई पड़ती है। परवर्ती कवि पूर्ववर्ती कविके वर्णनकी अपेक्षा कल्पनाओंको आगे बढ़ाता है तथा उसमें विस्तारका होना भी स्वाभाविक है। इसी प्रकार माघके शिशुपालवधमहाकाव्य (११वें सर्ग) का प्रभाव नैषधीय प्रभातवर्णन (१९वें सर्ग) पर स्पष्टतः दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार जयोदयमहाकाव्य नैषधीयचरितमहाकाव्य शैलीसे विशेषतः अनुप्राणित है। मानव अनुकरणशील प्राणी है । वह प्रारम्भसे ही भाषा और व्यवहारोंको परम्परया हो सीखता है । यद्यपि उसका व्यक्तित्व पूर्व व्यक्तित्वोंसे निराला रहता है, इस कारण उसके कृतित्वपर उसके व्यक्तित्वकी स्पष्टतः छाप रहती है, इसीसे वह तथा उसका कृतित्व पहिचाने जाते हैं, तथापि परम्परासे प्राप्त संस्कारोंकी छाप भी उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्वपर अनजाने ही अंकित होती जाती है। पूर्वप्राप्त ज्ञानधाराको स्वकीय नूतनज्ञानसंनिवेश द्वारा अग्रसारित करना विज्ञानेतर क्षेत्रके अनुसन्धानका सिद्धान्त है। महाकवि भूरामल शास्त्रीके इस महाकाव्यका पर्यालोडन करनेसे ज्ञात होती है उनकी स्वाध्यायव्यापकता । इस महाकाव्यमें पूर्ववर्ती काव्यों एवं शास्त्रों को मथकर नवनीतवत् गृहीत तत्त्वोंका पर्यालोचन तो एक स्वतन्त्र गवेषणाप्रबन्धका विषय है, तथापि निदर्शनार्थ प्रस्तोष्यमाण दो उद्धरण पर्याप्त होंगे। अमरुकशतक शृङ्गाररसका अप्रतिम काव्य माना जाता है। जयोदयमहाकाव्य १६, ७१ में उसके भावको स्वोपज्ञ प्रणाली द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है क्रीडाकोपात् कथमपि गच्छेति मयोदिते कठिनहृदयः । त्यक्त्वा तल्पमनल्पं गतवान् सखि पश्यताददयः ।। ७१ । अमरुक कविके वक्ष्यमाण पद्यको देखकर सुधीजन इस महाकविके प्रतिभाप्रकर्षका अनुभव करेंगे। महाकविकी प्रस्तुतिका प्रकार एवं अलंकार सर्वथा नूतन हैं । तुलनीय अमरुशतकका पद्यकथमपि सखि ! क्रीडाकोपाद् व्रजेति मयोदिते कठिनहृदयः शय्यां त्यक्त्वा बलाद् गत एव सः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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