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________________ ८८४ जयोदय-महाकाव्यम् [९८-१०० ___ अधरेत्यादि-प्रगे प्रत्यूषे वध्वाः सुलोचनाया अधरवणं निरीक्ष्य बहुधा मुविता प्रसन्नचेताः सखी वल्लभेन सुधां पीत्वा यच्छेषमवशिष्टं समुद्रं कृतमिति मेने ॥१७॥ धवेनाधररागो यो वध्वा उद्भासितो निशि । संक्रान्त इव स प्रातः सपत्नीनेत्रयोरभूत् ॥९८॥ धवेनेत्यादि-निशि रजन्यां धवेन प्रियेण वध्वा योऽधररागो वन्तच्छन्दारुणिमा पानेन उद्वासितो दूरीकृतः, स प्रातः सपत्नीनेत्रयोः समानः पतिर्यस्याः सपत्नी तस्या नेत्रयोः संक्रान्तः स्थानान्तरित इवाभूत् । वध्वा अधर रागरहितं दृष्ट्वा प्रियकृताधरपानमनुमाय सपत्नी क्रोधारुणनयना जातेति भावः ॥९॥ कुङ्कुमं प्रतिनखक्षतं जनी यावकं प्रतिरदाङ्कमध्वनि । पातयन्स्यभितो दशं भृशं वर्शनीयकतयान्वगाद्रसम् ॥९९॥ कुकुममित्यादि-अध्वनि मार्गे जनी वधूः अभितः परितः दृशं दृष्टि भृशमत्यन्तं यथा स्यात्तथा प्रति नखक्षतं कुङ्कुमं केशरं प्रतिरदाङ्क प्रतिदन्तक्षतं यावकं लाक्षारसं पातयन्ती दर्शनीयकतया सौन्दर्येण रसं प्रीतिमन्वगात् प्राप ॥१९॥ तदङ्कवलयाङ्कितकण्ठवेशं दृष्ट्वाह नापि न च निश्वसिति स्म लेशम् । बाला जलेन वदनं परिमार्जयन्ती प्रातर्दगम्बु पुनरेवमभाज्जयन्ती ॥१०॥ कान्तमित्यादि-प्रातःकाले तदन्यस्या वलयेन कटकेन अङ्कितः कण्ठदेशो यस्य तथाभूतं कान्तं पतिं दृष्ट्वा काचिद् बाला नाह न किच्चिदुवाच नापि च लेशं किञ्चित् निश्व कान्तं अर्थ-प्रभातमें सुलोचना के अधरोष्ठ सम्बन्धी व्रणको देखकर अत्यधिक प्रसन्न सखीने ऐसा माना कि पतिने अमृत पीकर शेष अमृतको मानो शीलबंद कर दिया है ॥९७॥ अर्थ-रात्रिमें पतिने स्त्रीके अधरोष्ठको जो लालीरहित किया था, उससे ऐसा जान पड़ता था कि वधूके अधरकी लाली मानों सपत्नीके नेत्रोंमें चली गई हो ॥९८॥ __ अर्थ-कोई देख तो नहीं रहा है, इस भयसे सब ओर बार-बार देखती हुई वधू प्रत्येक नखक्षत पर केशर और दन्तव्रण पर लाक्षारङ्ग लगाती हुई सुन्दरता से रसका अनुभव कर रही थी ॥१९॥ ___ अथं-प्रातः समयमें कोई स्त्री पतिके कण्ठमें अन्य स्त्रीके वलयका चिह्न देख न तो कुछ बोली और न उसने साँस ली, केवल रोने लगी। उसका वह नेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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