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जघोदय- महाकाव्यम्
[ ७३-७४
संकोचमुत प्रसन्नतायुक्तं युद्ध ं समेत्य कृत्वा च पुनर्भाग्याद् भास्वन्तं सूर्यमेव प्रकाशमानं मणिमय हसति आमोदस्य सुगन्धस्य प्रमोदस्य च सम्भरभृत् किलैष समस्ति ॥ ७२ ॥
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सूर्याख्या प्रतिभटः स्फुटकेशराली
पूर्वोक्त सानुमति सानुमतिः सुधालिन् ।
शब्दत्यनेन रणकर्माणि ताम्रचूलः स्पद्धङ्कुशत्वविषये
भवतोऽनुकूलः ॥७३॥
सूर्याख्येत्यादि - हे सुधालिन् ! सुधारवादिन् ! पूर्वोक्तसानुमति उदयपर्वते सूर्याख्या प्रतिभटः स्फुटकेशराली तिष्ठति । अनेन ताम्रचूलः सानुमतिस्त्वदीयानुमतियुक्तः सन् स्पद्धङ्कुशत्वविषये रणकर्मणि भवतोऽनुकूलः सन् शब्दति स्पद्धकारिणमाहमन्निव किल शब्दं करोति ॥ ७३ ॥
वृत्रघ्नतामनुभवन् सुमनोऽनुशास्ता
हे देव! देवपतिवत् सदृशस्तवास्ताम् । सम्यनिशान्तसमवायधरो दिनेश
श्चित्रादिकोत्कलितसंग्रहवान् स एषः ॥७४॥ वृत्रघ्नतामित्यादि - हे देव ! स्वामिन्! एष दिनेशो देवपतिवत् सुरेश इव तव सदृशश्वास्तामेव, 'वृत्रो दानवशक्रादिध्वान्तवारिदवैरिषु' इति वचनात् वृत्रमन्धकारं सुरेशपक्षे
चन्द्रमाके साथ जूझकर इस प्रातर्वेलामें सद्भाग्यसे सूर्यरूपी देदीप्यमान मणिको पाकर आमोद-हर्षं अथवा सुगन्धके भारको धारण कर हँस रहा है-आनन्दक अनुभव कर रहा है ॥ ७२ ॥
अर्थ - हे सुधारवादिन् ! पूर्वोक्त उदयाचल पर स्पष्ट कलगी से युक्त सूर्य नामका प्रतिद्वन्द्वी स्थित है, अतः रणकार्य - युद्धरूप कार्य में कुशल मुर्गा आपकी अनुमति से युक्त हो युद्धकार्यमें स्पर्धा करता हुआ उसे ललकार रहा है ।
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भावार्थ - प्रातर्वेला में मुर्गा बोलता है । क्यों बोलता है ? इसमें कविकी कल्पना है कि कोई राजा मुर्गों को लड़ानेका खेल देख रहा है। पृथिवी तलका मुर्गा उदयाचल पर स्थित लाल कलगीसे युक्त सूर्यरूपी मुर्गाको देख कर राजाकी अनुमति पाकर उसे युद्ध के लिये मानों ललकार रहा है ।। ७३ ।।
अर्थ - हे देव ! यह सूर्य सुरेश - इन्द्र और आपके समान है । श्लेषालंकार होनेसे श्लोकगत सब विशेषण सूर्य, इन्द्र और जयकुमारके पक्षमें आयोजित
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