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________________ २०-२१] अष्टादशः सर्गः विभिः कृतः पक्षिभिः कृतः प्रलापः कलकलशम्ब उत विकृतः प्रलापनामरोगः सन्दृश्यते । ततः खेदादुत कुमुद्बती मूच्छा मुद्रणावस्थां मूर्छानामरोगं वैति तमाम् ॥ १९ ॥ यद्वा यथाभिरुचि सन्तमसं निशोय __ वम्भोरुहाणि मुकुलाञ्जलिभिनिपीय । नाथोदमन्ति तवजीर्णतयाधुनार __ मेतानि निर्यवलिवन्दपवप्रकारम् ॥२०॥ यद्वेत्यावि-हे नाथ ! अम्भोरुहाणि कमलानि निशि रात्री मुकुलाम्मलिभिः कृत्वा यथाभिरुचि स्वेच्छानुसारमियद बहुलतरं सन्तमसमन्धकारं निपीय पीत्वाधुना निर्यतामलीनां भ्रमराणां वृन्दः समूहस्तस्य पर्व छमव प्रकारो यस्य तदेतबजीर्णतयेव किलोहमति प्रत्युदगिलन्ति एतानि तानि कमलानीति ॥ २० ॥ यन्मीलितं संपदि कैरविणीभिराभिः क्षीणा क्षपास्तमितमप्युत तारकाभिः । संचिन्तयन् धयितवारतयेन्दुदेवः प्राप्नोति पाण्डवपुरित्यथवा शुचेव ॥२१॥ यवित्यादि-सपदि साम्प्रतमाभिः रविणीभिर्यत्किल मीलितं सम्मूछितं, सपा रात्रिः सा क्षीणाभूत् तारकाभिरतातमितं मरणमवाप्तमित्यथवा चिन्तयत् दयिता। प्रियतमा दाराः स्त्रियो यस्य तद्भावेन । असाविन्दुदेवश्चन्द्रः शुचेव किल वपुः शरोरं पाण्डु श्वेतप्राय प्राप्नोति ॥ २१ ॥ इन सब अनहोनी बातोंको देखकर ही मानों कुमुदिनी मूर्छा-मुद्रितदशा (पक्षमें मूर्छा नामक रोगको) अत्यधिक रूपसे प्राप्त हो रही है ॥ १९ ॥ ___अर्थ-हे नाथ । कमलोंने रात्रिमें कुड्मलरूपी अञ्जलियोंके द्वारा इच्छानुसार इतना अधिक अन्धकारका पान किया था कि अब वे ही कमल निकलने वाले भ्रमरोंके छलसे अजीर्णके रूपमें उसी अन्धकारको उगल रहे हैं ।। २० ।। ___ अर्थ-चन्द्रमाके तीन स्त्रियाँ थीं-१ कुमुदिनी, २ रात्रि और ३ तारा । इनमेंसे इस समय कुमुदिनी मूच्छित हो गई, रात्रि नष्ट हो गई और तारा अस्तमित हो गई, मर गई। यतश्च चन्द्रमा स्त्रीप्रेमी था, अतः अपनी तथोक्त स्त्रियोंके विषयमें चिन्ता करता हुआ मानों शोकसे ही पाण्डु-श्वेत शरीरको प्राप्त हो रहा है ॥ २१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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