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प्रथम संस्करण से
प्रकाशकीय एक दशकसे भी अधिक जैसे दीर्घकालसे प्रतीक्षित 'जयोदय-महाकाव्य' के उत्तरांशको पाठकों तक सौंपकर प्रसन्नताका अनुभव हो रहा है। इसके प्रकाशनमें इतना विलम्ब होनेके कई कारण रहे; यथा-(१) इसकी पाण्डुलिपि ही सुरक्षित नहीं मिल सकी, (२) इसके सम्पादन एवं हिन्दी रूपान्तरणके लिए सुयोग्य विद्वान्का अभाव, (३) पूर्वाधं प्रकाशित करने वाली संस्थाकी गतिविधियोंमें ह्रास, (४) अन्य प्रकाशन संस्थाओंसे सम्पर्क आदि ।
जैसा कि पूर्वाधके सम्पादक श्रद्धेय पण्डित हीरालालजी शास्त्रीकी भावनानुसार इस ग्रन्थका सम्पादन डॉ० पण्डित पन्नालाल साहित्याचार्यजीको करना चाहिए, कारण वे इस विषयके अधिकारी एवं सुख्यात विद्वान् है । अतः इस उत्तरांशका कार्य उन्हींपर सौंपा गया। पहले तो उन्होंने व्यस्तता एवं अस्वस्थताकै कारण असमर्थता प्रकट की, किन्तु कुछ समय बाद जब मैंने स्वयं आग्रह कर सहयोग देनेकी बात की तब कहीं इसके अनुवाद एवं सम्पादनका कार्य आरम्भ हो सका । इस कार्य में पण्डितजीको अत्यधिक श्रम करना पड़ा। जिसे देखकर मुझे आश्चर्य हुआ और खेद भी कि आज भी समाजमें इस विषयके तज्ञ विद्वान् अन्य नहीं हैं। ___ इस महाकाव्यके प्रकाशनमें मेरी रुचि होनेका मूलभूत कारण यही रहा कि प्रस्तुत कृतिकी विशिष्टाओंका समीचीन/निष्पक्ष सार्थक मूल्यांकन हो एवं इसे संस्कृत साहित्य जगत्में उचित स्थान मिले । साथ ही, बीसवीं सदी जैसा दुष्कालमें भी देव भारतीके महाकविके अवतरण एवं उनके साहित्यका संस्कृत समाज आदर और गौरव स्थापित कर
सके।
___ इमे दुर्भाग्य ही कहें कि इस ग्रन्यका प्रकाशन बादको हो पा रहा है । इससे पहले इस पर पी० एच० डी० की उपाधि ग्रहण कर दो शोध छात्रोंने अपनेको गौरवान्वित किया तथा दो अभी भी कार्यरत हैं। कितना मुखद होता कि यदि उन्हें इस ग्रन्थका टीका सहित अवलोकन कर कार्य कर सकनेका अवसर मिलता। इससे अधिक सुखकर तो यह होगा कि इसके अठारहवें सर्ग, जिसमें प्रमुख स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियोंका उल्लेख हुआ है को, विश्वविद्यालय पाठ्यक्रममें सम्मिलित कर जहाँ इस महाकाव्यका भी अन्यों सम पठनपाठन कार्यों तथा छात्रोंको देशके लिए समर्पित देशभक्तोंकी कुर्बानियोंके प्रति आदर को भावना पैदा करायें । वहीं वीसवीं सदीमें सृजित एकमेव महाकाव्यको लोकख्याति दिला संस्कृत साहित्यके विकासके ऐतिहासिक पृष्ठोंमें अपनेको तथा इस सदीको स्वर्णाकित करें।
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