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________________ ७६८ जयोदय- महाकाव्यम् [ ३५-३६-३७ रागं तमक्ष्णोः प्रियवच्छ्रयन्तं रतिप्रतिज्ञां प्रथयन्तमन्तः । सुरारसं सन्निदधाति योषा स्मया स्मयोच्छेदपटुं सुतोषा ॥ ३५ ॥ टीका - अक्ष्णोश्चक्षुषोर्मध्ये तं प्रसिद्ध रागं रक्तिमानमनुरागं वा श्रयन्तं, अन्तर्हृदये तेः प्रतिर्ज्ञा प्रथयन्तं विस्तारयन्तं स्मयस्य दुरभिमानस्योच्छेदे निराकरणे पटु समर्थ सुराया रसं प्रियवत् यथा हृदयेश्वरं तथैव प्रीतिपूर्वकं या सुतोषा सन्तोषवती योषा स्त्री सा सन्निदधाति स्म । अनुप्रास उपमा च ॥३५॥ कलङ्किना क्रान्तपदं च कश्यं नावश्यनश्यत्तमसेदमश्यम् । तत्याज वेगाचचषकं स्वहस्तादित्येवमुत्का सुरताय शस्ता ॥३६॥ टीका- कश्यं मद्यं कलङ्किना कलङ्कयुक्तेन पापिना विरहिजनसन्तापकारिणा चन्द्रमसा क्रान्तपदं प्रतिबिम्बद्वारेणोपलब्धस्थानं तत इदम् अवश्यमेव नश्यत्तमो यस्य तेन विचार कारिणा जनेनाश्यमास्वादनीयं न भवति किलेत्येवं कृत्वा चषकं पानपात्र स्वहस्ताद् वेगादेव तत्याजोज्झितवती या खलुत्का सुरताय रतिक्रीडाथं शस्ता प्रशंसनीयाभूत् सा ॥३६॥ अधोऽथ पीतासवसुन्दरेभ्यस्त्यक्तं त्वमत्रं मिथुनाननेभ्यः । रुदत्तविन्दोवरमेव शापश्रिया हियेवालिरवेरवाप ॥३७॥ टीका- - अथासव पानानन्तरं पीतेनास्वादितेन तेनासवेन द्राक्षाविसमुत्थेन मर्चन कृत्वा सुन्दराणि मनोहराणि तेभ्यो मिथुनानां दम्पतीना माननेभ्यो मुखेभ्यस्त्यक्तं यवमत्र गर्व नामक अन्धकार कैसे नष्ट हो जाता ? यहाँ हेतु अलंकार है ||३४|| अर्थ-जो नेत्रोंमें राग लालिमा ( पक्षमें अनुरागको धारण कर रहा था, हृदयमें रतिकी प्रतिज्ञाको विस्तृत कर रहा था तथा समय-दुरभिमानको नष्ट करने में समर्थ था ऐसे मदिरा रसको किसी स्त्रीने प्रतिके समान संतोष पूर्वक सन्निहित किया था ||३५|| अर्थ - यतश्च यह मद्य, कलङ्की - कलंक युक्त (पक्ष में पापी) चन्द्रमाके द्वास आक्रान्त पद है - पापी चन्द्रमाने इसमें अपना पैर रख दिया है अथवा अपना स्थान बना लिया है अतः विचारवान् मनुष्यके द्वारा आस्वादन करने योग्य नहीं है ऐसा विचार कर संभोगके लिये उत्कण्ठित किसी सुन्दरीने पान पात्रको वेगपूर्वक अपने हाथसे छोड़ दिया || ३६ || अर्थ - तदनन्तर पी हुई मदिरामें सुन्दर स्त्रीपुरुषोंके मुखोंसे नीचे छोड़े हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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