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________________ ४६-४७ ] द्वादशः सर्गः ५७७ लोकानामेकमेव विलोकनीयं सर्वेषु वर्शनीयतमं रमणं द्रष्टुमिव किलात्तः सम्प्राप्तः सम्यग् विचारो यया सा नरनाथस्याकम्पनस्य सरस्वती वाग्बहिर्निरियाय निरगच्छत् ॥ ४५ ॥ भवता भवता प्रणायकेन तनयासौ विनयान्विता मुदेनः । शुभलक्षण रक्षणक्रियाया रसतोऽरं वृषतोऽधिकात्र भायात् ।। ४६ ॥ भवतेति । हे शुभलक्षण, भवता त्वया प्रणायकेन भवता सता विनयान्विताऽसौ तनया समावरणशीला पुत्री या नोऽस्माकं मुदे प्रसत्त्यर्थं सा रक्षणक्रियाया रसतोऽनुभावेन वृषतो धर्मेणानुदिनमधिका भायात्, असौ भवता धर्मेण सस्नेहं पालनीयेत्यर्थः ॥ ४६ ॥ शुचिसूत्रमुपेत्य ना कृतार्थः-वरितत्वाच्चरितस्य मापनार्थम् । शुशुभे सुशुभेऽङ्गणेऽत्र वस्तु त्रिगुणीकृत्य समर्थयन्नदस्तु ।। ४७ ।। शुचित्यादि । शुचिसूत्रमिवोपर्युक्तं धर्मेण पालनीयेत्येतदुपेत्य समुपलभ्य कृतार्थः सफलप्रयत्नो ना जयकुमारो वरितत्वाद्ध तोश्चरितस्य मापनार्थ परिमातुमेव किलात्र सुशुभेऽङ्गणे मण्डपलक्षणे तु पुनरद एव वस्तु त्रिगुणोकृत्य समर्पयञ् शुशुभे रराज ॥४७॥ अर्थ : हे सूननेवाले पाठक ! जगत् भरमें एकमात्र अवलोकनीय अद्वितीय ऐसे वरराजको देखनेके विचारसे ही मानों उस समय अकम्पनकी वाणी भी अपने मुखरूप घरसे बाहर निकली। अर्थात् वक्ष्यपाण प्रकारसे प्रकट हुई ॥ ४५ ॥ अन्वय । हे शुभलक्षण ! भवता प्रणायकेन भवता असौ विनयान्विता तनया या नः मुदे सा रक्षणक्रियाया रसतो ऽत्र वृषतोऽधिका अरं भायात् । अर्थ : हे उत्तम शुभलक्षणवाले वरराज ! आप इस सुलोचनाके नायक हैं यह विनयवती है, और जो हम लोगोंकी प्रसन्नताके लिए है अब वह आपके द्वारा सदा सुरक्षित रहे, जिससे कि वह सुख भोगती हुई धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करे । आशय यह है कि आप धर्मपूर्वक स्नेहके साथ इसकी सदा रक्षा करते रहें ॥ ४६ ॥ अन्वय : सुशुभे अङ्गणे शुचिसूत्र उपेत्य कृतार्थः ना (जयकुमारः) वरितत्वात् चरितस्य मापनाथं अदस्तु वस्तु त्रिगुणीकृत्य समर्पयन् शुशुभे । __ अर्थ : उस शुभ आँगनमें महाराज अकम्पनके 'इसकी धर्मसे रक्षा करना' इस सूत्र वाक्यको पाकर कृतार्थ होता हुआ जयकुमार वरपनेकी श्रेष्ठतासे अपने चरित्रको नापनेके कारण ही मानो उसे तिगुणा करके वापिस समर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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