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५४८ जयोदय-महाकाव्यम्
[८२-८३ हर्षप्रयुक्ताभिः, रङ्गभाभिः प्रसङ्गभावनाभिः सदाचारस्य प्रशस्ताचरणस्य समष्टिरेव नौ डुलिस्तामधिष्ठिता सत्यनिमेषभावं निमेषराहित्यमविच्छिनावलोकनकरत्वमगात् । नाभिव्यक्त्याऽभिव्यक्तिरहितरूपेण मानसिकभावेन, यद्वा, या दृष्टिमञ्जुषु च तासु लतासु वल्लीषु पक्षिणी पंभिस्त्री जाता सैव नाभिव्यक्त्यां नाभिनामकेऽवयवे, उदे जले, आलम्बनशीला, उवालम्बिनश्च ते तरङ्गाश्च तेषां भाभिः शोभाभिः सदा सततमेव चारस्य पर्यटनस्य समष्टिर्यया ता नावमधिष्ठिता सत्यनिमेषभाव मीनरूपतामगात् ॥ ८१ ॥
अजानुलोमस्थितिरिष्टवस्तु गौरीदृशीयं महिषी समस्तु । यथोत्तरारब्धसमृद्धिसत्वाऽपि मे सदैवामृतरूपतत्त्वा ।। ८२ ॥
अजान्वित्यादि । इयमीक्षणपथगता नास्ति जान्वोधयोर्लोम्नां स्थितियस्याः सा निर्लोमजङ्घावति, पक्षेऽजायाश्छाल्या अनुलोमाऽनुकूला स्थितियस्याः सा। गौरीदशी गौरीसदृशी पार्वतीतुल्या, पक्षे, गौर्धेनुः पुनमें महिषी पट्टराज्ञी, पक्ष रक्ताक्षिका समस्तु । पुनः कोदृशी, यथोत्तरमुत्तरोत्तरमारब्धं समृद्धीनां गुणसम्पत्तीनां सत्त्वं यस्यां सा, पक्ष समृद्धिः शरीरादिगौरवरूपा । अपि पुनः सदैव देवेन भाग्येन सहिताऽथ चामृतरूपं दुग्धात्मकं तत्त्वं यस्याः सा ।। ८२ ॥
न वाच्यताऽथापि सदक्षलावा तन्वी किलानल्पगुणप्रभावा । समुन्नतं वृत्तमुपैम्यमुष्या मुग्धोत्तमायाश्च सदा विदुष्याः ।। ८३ ।।
अर्थ : जयकुमारकी जो दृष्टि सुन्दरतामें पक्षपात करती है-अनुरक्त है वह हर्षसे प्रेरित प्रासङ्गिक भावनाओंसे सदाचारकी समष्टिरूप नौकामें बैठकर अभिव्यक्ति-रहित मानसिक विचारसे निनिमेष-अपलक हो गयी। ___ अन्य अर्थ-जयकुमारकी दृष्टि सुन्दर लताओंमें पक्षिणी बन गयी, उन्हीं में रम गयी और फिर सुलोचनाकी नाभि (सरोवर) की अभिव्यक्ति होनेपर उसकी जलक-ल्लोलोंकी छविसे आकृष्ट होकर निरन्तर वहीं विचरणमें सहायक नौकापर सवार होकर मीन हो गयी ॥ ८१ ।।
अन्वय : इयम् अजानुलोमस्थितिः गौरीदृशी अपि मे महिषी समस्तु यथोत्तरारब्धसमृद्धिसत्त्वा सदैवा अमृतरूपतत्त्वा इष्टवस्तु (अस्ति)। ___ अर्थ : दृष्टिके सामने स्थित यह सुलोचना निर्लोम जङ्घाओंसे युक्त है (इसकी स्थिति बकरीके अनुकूल है), पार्वती सरीखी है (ऐसी गाय है)। यह बकरी-सी, गाय-सी या भैंस सरीखी है, तो रहे, पर मेरी पट्टरानी हो। यह उत्तरोत्तर आत्मीय व शारीरिक गुणोंकी सम्पदाओंके अस्तित्वसे एवं अनुकूल भाग्यसे सम्पन्न रहेगी, अतएव यह अमृततत्त्व है, और इसीलिए मेरे लिए इष्ट वस्तु है ॥ ८२॥
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