SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१-४२ ] प्रथमः सर्गः दुःशीलाचरणं तल्लीना, इत्यवज्ञायकत्वाद्विरुद्धार्थता, ततो व्यभिचारो मारणकर्म तल्लीनाऽभूदिति ॥ ४० ॥ अनङ्गरम्योऽपि सदङ्गभावादभूत् समुद्रोऽप्यजडस्वभावात् । न गोत्रभित्किन्तु सदा पवित्रः स्वचेष्टितेनेत्थमसौ विचित्रः ॥४१॥ अनङ्गरम्य इति । स राजा सदङ्गभावात् प्रशस्तशरीरसद्भावादपि अनङ्गरम्यः अङ्गेन शरीरेण रम्यो मनोहरो न बभूवेति विरोधः ; किन्तु अनङ्गः कामदेव इव रम्यो मनोहरोऽभूदिति । अजलस्वभावात् नीरप्रकृतिविकलत्वादपि समुद्रो जलधिरिति विरोधः । अजडस्वभावात् अमूर्खत्वाद्विज्ञत्वादिति, डलयोरभेदात् । समुद्रो मुद्राभी रूप्यकादिभिः सहितोऽभूदिति । न गोत्रभिद्, पर्वतभेदी न भवन्नपि सदा पवित्रो वज्रधारी इन्द्रो बभूवेति विरोधः । ततो गोत्रभिद् वंशभेदकरो न भवन सदा पवित्रः सदाचारो बभूवेति परिहारः । इत्थमुक्तप्रकारेण असौ राजा स्वचेष्टितेन आत्माचरणेन विचित्रश्चमत्कारकारको बभूव ॥ ४१ ॥ महाविकाशस्थितिमद्विधानः सदानवारित्वमहो दधानः । सुरभ्यसाधारणशक्तितानः शत्रुश्च शश्वत्कृतिनः समानः ॥४२॥ था, इसलिए धर्मको धारण किये हुए था। वह सदैव परोपकारमें तत्पर था, इसीलिए उसके अंगसे उत्पन्न शक्ति भी समन्वय-नीतिसे सम्पन्न हो प्रजाके कण्टकस्वरूप वैरियोंके प्रति व्यभिचारित थी, अर्थात् उन्हें नष्ट कर देनेवाली थी॥ ४०॥ अन्वय: यतः सदङ्गभावात् अपि अनङ्गरम्यः, अजडस्वभावात अपि समुद्रः, न गोत्रभित् किन्तु सदा पवित्रः ( आसीत् )। इत्थम् असौ स्वचेष्टितेन विचित्रः ( बभूव )। अर्थ : वह राजा उत्तम अंगोंवाला होनेसे अनंग ( कामदेव ) के समान सुन्दर था। जड़स्वभाव ( मंदबुद्धि ) न होनेसे मुद्राओंसे भी युक्त था । वह अपने गोत्र ( कुल ) को मलिन करनेवाला नहीं, किन्तु सदा पवित्र उज्ज्वल चरित्रवाला था। इस प्रकार वह अपनी चेष्टाओं से विचित्र प्रकारका था। विशेष : इस श्लोकमें विरोधाभास है, क्योंकि जो अच्छे अंगोंवाला होता है वह अनंगरम्य अर्थात् अंगकी रमणीयतासे रहित नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो अजल-स्वभाव हो, वह समुद्र नहीं हो सकता जो पर्वतका तोड़नेवाला न हो वह पवित्र ( वज्रधारो ) नहीं हो सकता ॥ ४१ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002756
Book TitleJayodaya Mahakavya Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy