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जयोदय महाकाव्यका प्रतिपाद्य विषय १. प्रथम सर्ग-भारतवर्षके आदि सम्राट भरत चक्रवर्तीके प्रधान सेनापति और हस्तिनापुरके अधिपति जयकुमारके अतुल पराक्रमका गुण-गान किया गया है। तदनन्तर जयकुमार वन क्रीड़ा करनेके लिये गये । वहाँ पर उन्हें एक मुनिराजके दर्शन हुए। उनकी स्तुति करके उनसे अपने कर्तव्यका मार्ग पूछा।
पृ० १-६० २. द्वितीय सर्ग-मुनिराजने धर्मका माहात्म्य बता करके गृहस्थ धर्मका उपदेश निश्चय और व्यवहारनयके साथ उनकी उपयोगिता और उपादेयता बतलाते हुए दिया, जिसे जयकुमारने सहर्ष विनतमस्तक होकर स्वीकार किया। तत्पश्चात् जब आप राज-भवनको वापिस आ रहे थे तब मार्गमें एक सर्पिणी जो मुनिराजके उपदेशको सुनकर लौटी थी, वह किसी अन्य सर्प पर आसक्त थी। उसे देखकर जयकुमारने उसे झिड़काया। देखा-देखी अन्य लोगोंने भी उसे धिक्कारा और ईट-पत्थर फेंककर उसे आहत कर दिया। वह मर कर व्यन्तरी हुई और उसका पति सर्प जो पहले ही मर कर व्यन्तर देव हुआ था उससे कोई बहाना बनाकर जयकुमार की शिकायत की । तब क्रोधित होकर वह व्यन्तर देव जयकुमारको मारनेके लिए आया। इधर जयकुमार उस सर्पिणीके दुश्चरित्रका सच्चा वृत्तान्त अपनी प्रियाओंसे कह रहे थे। उसे सुनकर देव प्रतिबुद्ध होकर उनका सेवक बन गया और स्त्रियोंके दुश्चरित्रका विचार करता हुआ अपने स्थानको चला गया।
इस सर्गमें जिस अनुपम ढंगसे ग्रन्थकारने मुनिके मुख-द्वारा गृहस्थोचित कर्तव्योंका उपदेश दिया है, वह पाठकके हृदय पर अङ्कित हुए बिना नहीं रहेगा।
पृ० ६१-१३० ३. तीसरा सर्ग-किसी समय जयकुमार राज-सभामें विराजमान होकर राज-कार्यका संचालन कर रहे थे, तभी काशी-नरेश अकम्पन महाराजके दूतने जयकुमारका गौरवपूर्ण शब्दोंके साथ गुण-गान करते हुए आकर नमस्कार किया और काशी-नरेशकी सुपुत्री सुलोचनाके स्वयंवरका समाचार सुनाकर उसमें पधारनेके लिए प्रार्थना की। तब सदल-बल जयकुमार काशी पहुँचे और अकम्पन-महाराजने अपने परिवारके साथ अगवानी करके उनका स्वागत किया तथा उनको उत्तम अतिथि गृहमें ठहराया।
पृ० १३१-१९०
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